Thursday, October 23, 2025

मरने-मारने की हिंसा मे निपट गया माओवाद ?

 मरने-मारने की हिंसा मे निपट गया माओवाद ?

जीवंत लोकतंत्र में बन्दूक की क्रांति होगी नहीं, 125 से तीन जिलों में सिमट गया माओवाद
                    
                      आचार्य श्रीहरि

माओवाद एक विदेशी विचारधारा है। माओवाद की आधारशिला माओत्से तुंग एक चीनी तानाशाह था। उसे चीन की अराजक और लूटरी शक्ति पर गर्व था। वह अपने पडोसी देशों भारत, वियतनाम, भूटान, नेपाल ही नहीं बल्कि जापान, फिलिपींस और कबोडिया जैसे देशों को  भी कीडे-मौकेडे की तरह देखता और समझना था, अपनी सैनिक शक्ति के बल पर उन्हें कुचलना चाहता था और अपना गुलाम भी बनाना चाहता था।इसीलिए उसने भारत पर हमला किया था, वियतनाम सहित  अन्य देशों को भयभीत किया था। माओवाद की विचारधारा भारतीय संस्कृति और सभ्यता से एकदम अलग है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता से माओवाद दुश्मनी का भाव रखता है, शत्रुता का भाव रखता है। जैसे एक मयान में दो तलवारें नहीं हो सकती है वैसे एक ही भूभाग पर दो भिन्न-भिन्न विचारधाराएं गतिमान नहीं रह सकती हैं। भारतीय संस्कृति और सभ्यता वसुधैव कुटुम्बकम में विश्वास करती है,समान न्याय में विश्वास करती है, अहिंसा में विश्वास करती है, लूट, मार हत्या और डकैती से विरक्त है। इसीलिए हमारी संस्कृति अहिंसा परमो धर्म का सिद्धांत पर टिकी हुई है। अहिंसा परमो धर्म का पालन प्राचीनकाल से ऋशि मुनियों द्वारा किया जाता रहा है। भगवान महावीर ने अहिंसा को मुक्ति का मार्ग बनाया था, आज भी भगवान महावीर के अनुयायी अहिंसा के सिद्धांत का पालन करते हैं और अपने मुंह पर पटटी लगाते हैं, ताकि कोई प्राणी उनके मुंख में आकर शिकार न बन जायें। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों को भगाने के लिए इसी अहिंसा परमो धर्म के सिद्धांत का पालन किया था। अहिंसा के सिद्धांत पर चलकर महात्मा गांधी अमर हो गये और आज भी भारत के जनमानस पर महात्मा गांधी की छाप अंकित है और सत्ता की राजनीति भी महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों को आत्मसात कर गतिशील होती है। ऐसी धरती पर माओवाद का अस्तित्व और सक्रियता के जीवंत होने की बहुत बडी उम्मीद पालना ही नाउम्मीदी के सम्मान थी, जिसके पीछे असंख्य हत्याएं हुई, विकास और उन्नति की उम्मीदों और सक्रियताओं को बन्दुकों की गोलियों से संहार किया गया, कुचला गया। डर, भय और आतंक का वातावरण बनाया गया। माओवाद एक तरह से इस्लाम के सहचर जैसे हैं। जिस प्रकार से इस्लाम अपने जन्मकाल के सिद्धांतों से बंधा हुआ है और नये विचारों को अपनाने के लिए तैयार नहीं होता है उसी प्रकार माओवाद अभी भी बन्दूक की गोली से सत्ता मिलती के सिद्धांत को छोडने के लिए तैयार नहीं है। भारत की लोकतंत्र में ये स्वयं अपनी जगह बनाने के लिए तैयार नहीं हैं और भारत की जनता बन्दूक की गोली की क्रांति के साथ चलने केलिए तैयार भी नहीं है।
             माओवाद की कहानी िंहंसक है, खूनी है और तानाशाही है। तानाशाही जहां पर होती है वहां पर जनता की भागीदारी नहीं होती है, जनता की इच्छा कोई स्थान नही रखती है, जनता अपना भाग्य विधाता खुद नहीं चुन सकती है, जनता सिर्फ तानाशाही की इच्छा का पालन करने और तानाशाही के फरमान के अनुसार चलने के लिए बाध्य होती है। कहने की जरूरत नहीं है कि माओवाद जिसके आधार पर खडा है यानी कि माओत्से तुंग वह खुद एक तानाशाह था। माओ कहता था कि सत्ता बन्दूक की गोली से निकलती है, सत्ता जनता की इच्छा और जनमत से नहीं निकलती है। यही कारण था कि माओ ने चीन पर वर्शो राज किया, राज करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ बन्दूक की गोली थी। सही भी यही था। माओ को चीन के शासक के रूप में जनता ने नहीं चुनी थी। मजदूरों की कोई सहमति नहीं थी, किसानों की कोई सहमति नहीं थी। बन्दूक की गोली के बल पर चीनी राजवंश पर कब्जा कर माओ शासक बना था। माओ ने चीन से बाहर झांक कर नहीं देखा था, उसने अमेरिका के एटम बम से मारे गये हिरोशिमा-नागाशकी लोगों की विभत्स पीडा को नहीं देखी थी, उसने ब्रिटेन के उपनिवेशवाद के प्रहार से बनें गिरमिटिया मजदूरों के संघर्श और अपनी भूमि से बेदखल होने की पीडा को नहीं देखी थी। अपनी सत्ता से दीर्घायू रखने के लिए लाखों लोगों को मौत की नहीं माओ ने सुलायी थी। असहमति और विरोध की कोई संभावना माओ की डिस्नरी में थी नहीं।
                   माओवाद खुद चीन में दीर्धायू नहीं था, जनपक्षीय भी नहीं था, लहर नहीं था, सत्ता की धारा नहीं था। ऐसा मानने वाले को कुछ प्रश्नों का उत्तर देना होगा। हमारा प्रश्न यह है कि अगर माओवाद जनकल्याणकारी था, वैज्ञानिक था तब माओवाद का अंत माओ के मरने के साथ ही क्यों हो गया? क्या यह सही नहीं है कि माओ की मौत के साथ चीन उससे पीछा छुडाने की नीति नहीं अपना लिया था, चीन पर पूंजीवाद हावी नहीं हो गया था? चीन ने पूंजीवाद को नहीं अपना लिया था? मजदूरों की बात करने वाला चीन मजदूरों का हंता और सामंत कैसे बन बैठा? हायर एंड फायर की नीति इसकी गवाही देती है। हायर एंड फायर की नीति का अर्थ होता है उपयोग करो और फेको, इस नीति के तहत मजदूर को हायर किया जा सकता है और मनमर्जी तौर पर बाहर किया जा सकता है। मजदूर कोई हडताल नहीं कर सकते हैं, मजदूर अपने श्रम का कोई उचित मूल्य की मांग नहीं कर सकते हैं, उन्हें नियोक्ता के रहमोकरम पर रहना है। इस नीति का फायदा फैक्टरी मालिक और दुनिया के निवेशक खूब उठाते हैं। दुनिया के पूंजीपतियों ने इसका खूब लाभ उठाया और यही कारण है कि दुनिया भर के पूंजीपतियों की पहली पसंद चीन बन गया। परकल्याण पर न तो माओ चले, न लेनिन चला, न ही मार्क्स की ऐसी कोई अवधारणा थी। लेनिन परकल्याण की सोची होती तो सिर्फ सोवियत संघ के भविश्य ही नहीं देखी होती, हिटलर के हमले के पूर्व ही स्टालिन ब्रिटेन का साथ दिया होता, माओ तो कभी भी चीन की बाहर की दुनिया की ओर आंख उठा कर ही नहीं देखा। फिर दुनिया की मजदूर एक कैसे होंगे? मजदूरों का भी देश होता है, मजदूरों के लिए भी देश की परिधि होती है, जिनमें उन्हें अनिवार्य तौर पर राश्ट की अहर्ताओं और अवधारणाओं का पालन करना होता है। सिर्फ मजदूरों की अनिवार्यता और प्राथमिकता समानता के अधिकार के हनन करते हैं। माओवाद, मार्क्सवाद, लेनिनवाद, स्तालिनवाद मजदूरों की प्राथमिकता की तरह किसानों और युवाओं की प्राथमिकता होती नहीं। फैक्टरियां लगाने के लिए, मजदूरों के श्रम रोजगार देने के लिए खडी हुई औद्वोगिक इंकाइयां खडी करने के लिए पैसे की जरूरत होती है? इस अनिवार्य सच्चाई से माओवाद मुंह छिपाकर भागता है।
                      भारत में माओवाद की बुनियाद ही हिंसक और भारत विरोधी है। माओवादी अपने देश के ही हंता हैं। जो समुदाय, जो गिरोह, जो संगठन और जो विचारधारा अपने देश की संप्रभुत्ता और संस्कृति का विरोधी होते हैं, उनके खिलाफ बोलते हैं, उनके खिलाफ सक्रियता रखते हैं, उन्हें सिर्फ और सिर्फ देशद्रोही कहा जाता है। चीन में ऐसे देशद्रोहियों की सजा सिर्फ मौत होती है,फांसी होती है औेर जेल की सजा होती है। मुस्लिम तानाशाही वाले देशों में ऐसे अपराध की सजा विभत्स होती है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि भारत में माओवाद की बुनियाद भारत विरोधी कैसे और क्यों हैं? इस प्रश्न के उत्तर जानने के लिए आपको माओ का भारत पर आक्रमन के इतिहास को जानना होगा और माओ को भारत विरोधी भावनाओं को जानना होगा। माओ ने जब 1962 में भारत पर आक्रमण किया था तब भारत में उनके अनुयायियों ने खुशियां मनायी थी, भारत में माओवाद के जन्मदाता कानू सन्याल ने माओ को भारत का आवर प्राइमनिस्टर कहा था, यानी कि भारत के भविश्य का शासक कहा था। कम्युनिस्टों ने माओ को युद्ध में जीताने और भारतीय सैनिकों के संहार करने के लिए सहयोग दिया था। भारतीय सैनिकों के हथियार और बारूद सुविधापूर्ण ढंग से नहीं मिले, इसके लिए प्रपंच किया था, कम्युनिस्ट यूनियनों ने आयुश फैक्टरियों में हडताल करायी थी, और चीनी सैनिकों के स्वागत में बैनर लगाये थें। ऐसी कम्युनिस्ट गद्दारी को कौन देशभक्त स्वीकार करेगा और जीवंत समर्थन देगा?
        भारत का लोकतंत्र जीवंत भी है और गतिमान भी है। लाख विसंगतियां और संकट होने के बावजूद लोकतंत्र के प्रति विश्वास कायम है। माओवाद, लेनिनवाद और मार्क्सवाद एक विफल और खारिज हुई विचारधारा है, जिसमें सिर्फ और सिर्फ हिंसा और तानाशाही निहित है। यही कारण है कि पहले सोवियत संघ का पतन हुआ, लेनिन, स्तालिन और मार्क्स की विचार धाराएं ध्वस्त हुई, फिर चीनं माओ की विचारधारा से अलग होकर पूंजीवाद के चरम पर पहुंच गया। यही कारण है कि भारत में भी आमलोगों और खासकर नयी पीढी के अंदर माओवाद ही नहीं बल्कि कार्ल मार्क्स, स्तालिन और लेनिन की विचारधाएं स्थान बना पायी। क्यूबा और वेनेजुएला जैसे देश में कम्युनिस्ट तानाशाही आयी जरूर पर खुद ही आत्मघाती बन गयी, उसके दुश्परिणामों से भयानक परिस्थितियां बन गयी, भूख-बेकारी में जनता फंस गयी। भारत मे भी माओवाद निरर्थक बन गया है। विश्वविद्यालयों में धमक रखने वाला और धमाल मचाने वाले माओवादी समर्थक युवाओं की कमी महसूस की जा सकती है, इसके घटने और निरर्थक बन जाने को महसूस किया जा सकता है। एक समय देश के 125 जिलों में माओवादियों का आतंक चरम पर था, इनकी हिंसा विभत्स थी पर आज प्रतिकात्मक रूप से मात्र 11 जिलों में इनका प्रभुत्व जरूर है, मात्र तीन जिले ही ऐसे हैं जहां पर इनकी उपस्थितियां विस्फोटक हैं। माओवादियों का लगातार आत्मसमर्पण करना इस बात के संकेत हैं कि इनका माओवाद के प्रति आत्मविश्वास डिगा है, हताशा और निराशा में खडे हैं। इनकी हताशा और निराशा के प्रति माओवाद की बन्दूक क्रांति का न होना है? भारत के जीवंत लोकतंत्र में तानाशाही और बन्दूक की क्रांति होगी नहीं फिर माओवाद का जींवंत होने की उम्मीद कहां बनती है? माओवाद बंदूक की क्रांति की उम्मीद छोडेंगा नहीं और भारत की जनता इनकी बन्दूक क्रांकि होने नहीं देगी। ऐसी परिस्थितियों में माओवाद का निरर्थक होना और माओवाद का संहार होना अनिवार्य ही है।

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आचार्य श्रीहरि
नई दिल्ली
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