Thursday, October 23, 2025

हिटलर की अनुयायी हैं मारिया कोरीना ?

                                राष्ट्र-चिंतन

हिटलर की अनुयायी हैं मारिया कोरीना ?

मुस्लिम संगठन विरोध में उतरे, ट्रंपवादी और दक्षिण पंथी भी बताया

                 
                                   आचार्य श्रीहरि
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विरोध एक मानवीय अभिव्यक्ति है। हर मुद्दे का विरोध और समर्थन अवश्यभांवी होता है। शांति का नोबल पुरस्कार को ही कसौटी पर रखकर देख लीजिये। शांति का नोबल पुरस्कार जिस किसी को मिलता है, उस पर विवाद उत्पन्न हो जाता है, पक्ष और विपक्ष की भावनाएं प्रबल हो जाती हैं, अतिरंजित विचार सामने आ जाते हैं, पूरी कूंडली ही बेपर्द कर रख दी जाती है, इसे नोबल पुरस्कार क्यों दिया गया, नोबल पुरस्कार देने मात्र से जनमत की हत्या हुई है, लोकतंत्र विरोधी कदम उठाये गये हैं, जैसे प्रश्नों की झडी लग जाती है। अभी-अभी वेनेजुएला के विपक्षी नेता मारिया कोरीना को शांति का नोबल पुरस्कार मिला है। नोबल पुरस्कार मिलने के साथ ही साथ मारिया कोरीना पूरी दुनिया में अचानक प्रसिद्ध हो गयी, लोकतंत्र की प्रहरी बन गयी, मानवता की पूजारी बन गयी, तानाशाही विरोधी मानसिकता की विरोधी हस्ती बन गयी, उसके पक्ष में इतनी ज्यादा विशेषताएं खोज डाली गयी उतनी विशेषताओं का भान भी खुद मारिया कोरीना की नहीं होगा ?
                  बातें और परिस्थितियां भी कुछ इसी तरह की हैं जो मारिया कोरीना की प्रशंसा के लिए प्रेरित करती हैं, बाध्य करती हैं। नोबल पुरस्कार के लिए उनकी प्रतिद्वदिता किसी छोटे या फिर अमान्य हस्ती से नहीं थी बल्कि बहुत बडी हस्ती थी। ऐसी हस्ती से थी जो पूरी दुनिया को अपनी उंगलियों पर नचाने के लिए दम-खम रखने की शक्ति का प्रदर्शन करते रहता है। यानी की डोनाल्ड ट्रम्प। डोनाल्ड ट्रम्प भी शांति के नोबल पुरस्कार के लिए इच्छा रखते थे और इसके लिए लॉबिंग भी खूब किये थे, अपने समर्थन देशों से अपने पक्ष में सिफारिशें भी करायी थी और उन्होंने दावा किया था कि उसने कोई एक नहीं बल्कि आठ-आठ अंतर्राष्ट्रीय युद्ध रोकवाये हैं और शांति स्थापित करने का अतुलनीय कार्य किये हैं। पाकिस्तान, रूस और इस्राइल ने लिखित सिफारिशें की थीं। नोबल कमिटी ने डोनाल्ड ट्रम्प के अचानक बदले रूप को स्वीकार नहीं किया और मारिया कोरीना के पक्ष में अपना फैसला सुना दिया। मारिया भी ट्रम्पवादी हैं और दक्षिण पंथी हें तथा ट्रम्प की ही तरह अपने देश की अस्मिता और संस्कृति के प्रति संरक्षणवादी विचार रखती हैं।
                विरोध की बातें भी प्रबल हैं, यथार्थ से जुडे हुए हैं। किसने विरोध किया, क्यों किया विरोध? विरोध में कौन-कौन सी बातें प्रमुख हैं, कौन-कौन सी बातें झूठी हैं? प्रबल विरोध की बातें मुस्लिम दुनिया से आयी हुर्इ्र हैं और खासकर अमेरिकी मुस्लिम संगठन विरोध में झंडा लहरा रहे हैं। कोई एक नहीं बल्कि अनेकों मुस्लिम संगठनों ने मारिया कोरीना के भूत और वर्तमान की परतें खोद डालीं और उन्हें युद्ध समर्थक बता दिया, नस्ली हिंसा का समर्थक बता दिया, हिटलर का अनुआयी बता दिया, उपनिवेशवाद का बदबूदार उदाहरण बता दिया, मानवता का दुश्मन बता दिया, अमेरिकी एजेंट बता दिया और ईसाई समर्थक एक्टिविस्ट भी बता दिया गया। मुस्लिम वाद का प्रतिनिधित्व करने वाले काउंसिल ऑन अमेरिकन इस्लामिक रिलेशंस ने कहा है कि नोबल कमिटी को मारिया कोरीना की पूरी कूंडली खंगालनी चाहिए थी, उन्हें सिर्फ वेनेजुएला की आतंरिक राजनीति की कसौटी पर परख नहीं करनी चाहिए बल्कि मारिया की संपूर्ण जिंदगी और उसके संपूर्ण राजनीतिक क्रिया कलापों को देखना चाहिए था और उसकी पडताल भी स्वतंत्र ढंग से करनी चाहिए थी। काउंसिल ऑन अमेरिकन इस्लामिक रिलेशंस ने प्रमाण दिया है कि मारिया का सीधा संपर्क इस्राइल से है, इस्राइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू के लिकुड पार्टी से उसका संपर्क है, इतना ही नहीं बल्कि मारिया का संबंध यूरोपीय फांसीवादियों से भी हैं, यूरोपीय फांसीवादियों के एक सम्मेलन को भी वह संबोधित कर चुकी है। जानना यह जरूरी है कि यूरोप में फांसीवादियों का नेटवर्क और जनमत काफी विस्तार पाया है, उनका मुस्लिम विरोध का एजेंडा भी उल्लेखनीय ढंग से चर्चित हुआ है। हिटलर ने जिस तरह से यहूदियों का नरसंहार किया था और यहूदियों के खिलाफ जिस तरह प्रोपगंडा फैलाया था उसी तरह के विचार यूरोप के फांसीवादी मुस्लिम जनसंख्या को लेकर रखते हैं, और विस्तार देते हैं। सिर्फ यूरोप की ही बात नहीं है , जहां पर मुस्लिम आबादी को लेकर शंकाएं हैं और उनकी गतिविधियों को राष्ट्र केी परिधि और अस्मिता के खिलाफ माना जा रहा है। ऐसी बातें अमेरिका के अंदर भी बैठी हुई हैं और विस्तार पा रही हैं। भारत और चीन में भी मुस्लिम आबादी के विखंडन प्रक्रिया को लेकर असहमति है और विवाद व टकराव है। कश्मीर में विखंडनकारी भावनाएं हिंसक हैं और चीन में मुस्लिम विखंडनकारी अस्मिताएं हिंसक होकर समस्या का कारण बनी हुई हैं।
                   आरोपों और तथ्य-सच्चाई हमेशा साथ-साथ नहीं होते हैं, कई बार आरोपों और सच्चाई में काफी अतंर होता है, कभी-कभी आरोप तो हवाहवाई भी होते हैं। मारिया कोरीना का मुस्लिम विरोधी होने का प्रत्यक्ष कोई प्रमाण नहीं है, उनका कोई हिंसक बयानबाजी भी नहीं है, मुस्लिम आबादी को प्रताडित करने या फिर उन्हें अलग-थलग करने की कोई बात वह सीधी तौर पर करती नहीं हैं। उनकी इस्राइल के प्रति हमदर्दी जरूर है, इस्राइल के प्रति उनकी सहानुभूति भी है, इस्राइल की भविष्यजीवी होने की वह कामना भी करती है। इसका प्रमाण उनकी सोशल मीडिया पर हुई बयानबाजी है। 15 अप्रैल 2021 को वह ट्विटर पर लिखती हैं कि मैं इस्राइल की स्वतंत्रता दिवस की शुभकामना देती हू, आपके 73 साल की आजादी को हम मिसाल की तौर पर देखते हैं, आपकी प्रगति और विकास आगे भी जारी रहेगी। इसके अलावा एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि अगर उन्हें वेनेजुएला की सत्ता मिलेगी तो फिर इस्राइल के साथ राजनयिक संबंध मजबूत करेगी, बहाल करेगी। वेनुजुएला और इस्राइल के बीच अभी कोई राजनयिक संबंध नहीं है।
                 हमास को लेकर उनकी धारणा भी स्पष्ट है और मानवतावादी है, आतंक विरोधी है। सात अक्टूबर 2023 को हमास ने इस्राइल पर हमला कर दुनिया को भयभीत कर दिया था और मानवता को कंपकपा दिया था। दूध मुंहे बच्चों की निर्मम हत्या हुई उनके मांस के टूकडे चबा कर खा गये थे, महिलाओं के साथ ज्यादतियां और बलात्कार की हदें पार हुई थी। हमास एक आतंकवादी संगठन है जो इस्राइल के अस्तित्व को नहीं मानता है। मारिया ने स्पष्ट तौर पर हमास द्वारा इस्राइल पर किये गये विभतस हमले के निंदा की थी और सोशल मीडिया एक्स पर पोस्ट किया था कि मैं इस्राइल के साथ हूं , हमास के आतंकवादी हमले के खिलाफ हूं, हम आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लडाई में शामिल हैं, आतंकवाद को पराजित करना हम सभी का कर्तव्य है। मारिया का हमास दृष्टिकोण पूरी तरह से मानवता वादी है और हिसंा विरोधी है, यह मुस्लिम आबादी विरोधी नहीं हैं। हमास को दुनिया का जनमत भी आतंकी ही मानता है। यही कारण है कि इस्राइल के भीषण हमले के खिलाफ पूरी दुनिया की सहानुभूति हमास को नहीं मिली थी। कहने का अर्थ यह है कि हमास का विरोध करन और इस्राइल का समर्थन करने का मतलब मुस्लिम आबादी का विरोध करना नहीं होता है।
                    मारिया को ट्रम्पवादी क्यों कहा जाता है? खासकर पश्चिमी मीडिया ने मारिया को ट्रम्प की नीतियों और कार्यक्रमों का समर्थक माना है। इस प्रसंग पर मारिया की मजबूरी और जरूरत को भी दरकिनार नहीं किया जा सकता है। मारिया निर्वासित जीवन व्यतित कर रही है। वर्तमान में मारिया अमेरिका में रह रही है और यही से वेनेजुएला में राजनीतिक परिवर्तन की लडाई को तेज कर रही है। कम्युनिस्ट तानाशाही ने वेनेजुएला के भविष्य को चौपट कर दिया और भूख से तडपते हुए लोग मौत के शिकार बन गये। लोकतंत्र नाम की कोई चीज तानाशाही में नहीं होती है। सांचेत से शुरू हुई कम्युनिस्ट तानाशाही निकोलस मदुरों तक खून और हिंसा की कहानी कहती है। मानवाधारी संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि तानाशाह निकोलस मदुरो की सरकार मानवता का हनन कर रही है यातना और हत्या के बल पर लोकतंत्र समर्थक आवाज को कुचल रही है। वेनेजुएला की लोकतंत्र विरोधी तानाशाही को अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के बिना समाप्त नहीं किया जा सकता है। मारिया मानती है कि ट्रम्प का सहयोग वेनेजुएला के लिए अति आवश्यक है। ट्रम्प खुद वेनेजुएला की तानाशाही को अमेरिका विरोधी और अमेरिका के लिए खतरा मानते हैं। जहां तक मारिया के मुस्लिम विरोधी होने के आरोप की बात है तो उसमें कोई खास सच्चाई नहीं है। हर जगह और हर देश में मुस्लिम आबादी को ही इस्लामिक आतंकवाद और इस्लामिक शासन क्यों चाहिए, इसके लिए हमास और आइ्रएस, बोको हरम, जैसे मुस्लिम आतंकवादी संगठन क्यों चाहिए? मुस्लिम आबादी खुद आत्मंथन करें। नोबल पुरस्कार से सम्मानित होने के बाद मारिया कोरीना और भी शक्तिशाली ढंग से लोकतंत्र की प्रहरी बनेगी।

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आचार्य श्रीहरि
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मरने-मारने की हिंसा मे निपट गया माओवाद ?

 मरने-मारने की हिंसा मे निपट गया माओवाद ?

जीवंत लोकतंत्र में बन्दूक की क्रांति होगी नहीं, 125 से तीन जिलों में सिमट गया माओवाद
                    
                      आचार्य श्रीहरि

माओवाद एक विदेशी विचारधारा है। माओवाद की आधारशिला माओत्से तुंग एक चीनी तानाशाह था। उसे चीन की अराजक और लूटरी शक्ति पर गर्व था। वह अपने पडोसी देशों भारत, वियतनाम, भूटान, नेपाल ही नहीं बल्कि जापान, फिलिपींस और कबोडिया जैसे देशों को  भी कीडे-मौकेडे की तरह देखता और समझना था, अपनी सैनिक शक्ति के बल पर उन्हें कुचलना चाहता था और अपना गुलाम भी बनाना चाहता था।इसीलिए उसने भारत पर हमला किया था, वियतनाम सहित  अन्य देशों को भयभीत किया था। माओवाद की विचारधारा भारतीय संस्कृति और सभ्यता से एकदम अलग है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता से माओवाद दुश्मनी का भाव रखता है, शत्रुता का भाव रखता है। जैसे एक मयान में दो तलवारें नहीं हो सकती है वैसे एक ही भूभाग पर दो भिन्न-भिन्न विचारधाराएं गतिमान नहीं रह सकती हैं। भारतीय संस्कृति और सभ्यता वसुधैव कुटुम्बकम में विश्वास करती है,समान न्याय में विश्वास करती है, अहिंसा में विश्वास करती है, लूट, मार हत्या और डकैती से विरक्त है। इसीलिए हमारी संस्कृति अहिंसा परमो धर्म का सिद्धांत पर टिकी हुई है। अहिंसा परमो धर्म का पालन प्राचीनकाल से ऋशि मुनियों द्वारा किया जाता रहा है। भगवान महावीर ने अहिंसा को मुक्ति का मार्ग बनाया था, आज भी भगवान महावीर के अनुयायी अहिंसा के सिद्धांत का पालन करते हैं और अपने मुंह पर पटटी लगाते हैं, ताकि कोई प्राणी उनके मुंख में आकर शिकार न बन जायें। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों को भगाने के लिए इसी अहिंसा परमो धर्म के सिद्धांत का पालन किया था। अहिंसा के सिद्धांत पर चलकर महात्मा गांधी अमर हो गये और आज भी भारत के जनमानस पर महात्मा गांधी की छाप अंकित है और सत्ता की राजनीति भी महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों को आत्मसात कर गतिशील होती है। ऐसी धरती पर माओवाद का अस्तित्व और सक्रियता के जीवंत होने की बहुत बडी उम्मीद पालना ही नाउम्मीदी के सम्मान थी, जिसके पीछे असंख्य हत्याएं हुई, विकास और उन्नति की उम्मीदों और सक्रियताओं को बन्दुकों की गोलियों से संहार किया गया, कुचला गया। डर, भय और आतंक का वातावरण बनाया गया। माओवाद एक तरह से इस्लाम के सहचर जैसे हैं। जिस प्रकार से इस्लाम अपने जन्मकाल के सिद्धांतों से बंधा हुआ है और नये विचारों को अपनाने के लिए तैयार नहीं होता है उसी प्रकार माओवाद अभी भी बन्दूक की गोली से सत्ता मिलती के सिद्धांत को छोडने के लिए तैयार नहीं है। भारत की लोकतंत्र में ये स्वयं अपनी जगह बनाने के लिए तैयार नहीं हैं और भारत की जनता बन्दूक की गोली की क्रांति के साथ चलने केलिए तैयार भी नहीं है।
             माओवाद की कहानी िंहंसक है, खूनी है और तानाशाही है। तानाशाही जहां पर होती है वहां पर जनता की भागीदारी नहीं होती है, जनता की इच्छा कोई स्थान नही रखती है, जनता अपना भाग्य विधाता खुद नहीं चुन सकती है, जनता सिर्फ तानाशाही की इच्छा का पालन करने और तानाशाही के फरमान के अनुसार चलने के लिए बाध्य होती है। कहने की जरूरत नहीं है कि माओवाद जिसके आधार पर खडा है यानी कि माओत्से तुंग वह खुद एक तानाशाह था। माओ कहता था कि सत्ता बन्दूक की गोली से निकलती है, सत्ता जनता की इच्छा और जनमत से नहीं निकलती है। यही कारण था कि माओ ने चीन पर वर्शो राज किया, राज करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ बन्दूक की गोली थी। सही भी यही था। माओ को चीन के शासक के रूप में जनता ने नहीं चुनी थी। मजदूरों की कोई सहमति नहीं थी, किसानों की कोई सहमति नहीं थी। बन्दूक की गोली के बल पर चीनी राजवंश पर कब्जा कर माओ शासक बना था। माओ ने चीन से बाहर झांक कर नहीं देखा था, उसने अमेरिका के एटम बम से मारे गये हिरोशिमा-नागाशकी लोगों की विभत्स पीडा को नहीं देखी थी, उसने ब्रिटेन के उपनिवेशवाद के प्रहार से बनें गिरमिटिया मजदूरों के संघर्श और अपनी भूमि से बेदखल होने की पीडा को नहीं देखी थी। अपनी सत्ता से दीर्घायू रखने के लिए लाखों लोगों को मौत की नहीं माओ ने सुलायी थी। असहमति और विरोध की कोई संभावना माओ की डिस्नरी में थी नहीं।
                   माओवाद खुद चीन में दीर्धायू नहीं था, जनपक्षीय भी नहीं था, लहर नहीं था, सत्ता की धारा नहीं था। ऐसा मानने वाले को कुछ प्रश्नों का उत्तर देना होगा। हमारा प्रश्न यह है कि अगर माओवाद जनकल्याणकारी था, वैज्ञानिक था तब माओवाद का अंत माओ के मरने के साथ ही क्यों हो गया? क्या यह सही नहीं है कि माओ की मौत के साथ चीन उससे पीछा छुडाने की नीति नहीं अपना लिया था, चीन पर पूंजीवाद हावी नहीं हो गया था? चीन ने पूंजीवाद को नहीं अपना लिया था? मजदूरों की बात करने वाला चीन मजदूरों का हंता और सामंत कैसे बन बैठा? हायर एंड फायर की नीति इसकी गवाही देती है। हायर एंड फायर की नीति का अर्थ होता है उपयोग करो और फेको, इस नीति के तहत मजदूर को हायर किया जा सकता है और मनमर्जी तौर पर बाहर किया जा सकता है। मजदूर कोई हडताल नहीं कर सकते हैं, मजदूर अपने श्रम का कोई उचित मूल्य की मांग नहीं कर सकते हैं, उन्हें नियोक्ता के रहमोकरम पर रहना है। इस नीति का फायदा फैक्टरी मालिक और दुनिया के निवेशक खूब उठाते हैं। दुनिया के पूंजीपतियों ने इसका खूब लाभ उठाया और यही कारण है कि दुनिया भर के पूंजीपतियों की पहली पसंद चीन बन गया। परकल्याण पर न तो माओ चले, न लेनिन चला, न ही मार्क्स की ऐसी कोई अवधारणा थी। लेनिन परकल्याण की सोची होती तो सिर्फ सोवियत संघ के भविश्य ही नहीं देखी होती, हिटलर के हमले के पूर्व ही स्टालिन ब्रिटेन का साथ दिया होता, माओ तो कभी भी चीन की बाहर की दुनिया की ओर आंख उठा कर ही नहीं देखा। फिर दुनिया की मजदूर एक कैसे होंगे? मजदूरों का भी देश होता है, मजदूरों के लिए भी देश की परिधि होती है, जिनमें उन्हें अनिवार्य तौर पर राश्ट की अहर्ताओं और अवधारणाओं का पालन करना होता है। सिर्फ मजदूरों की अनिवार्यता और प्राथमिकता समानता के अधिकार के हनन करते हैं। माओवाद, मार्क्सवाद, लेनिनवाद, स्तालिनवाद मजदूरों की प्राथमिकता की तरह किसानों और युवाओं की प्राथमिकता होती नहीं। फैक्टरियां लगाने के लिए, मजदूरों के श्रम रोजगार देने के लिए खडी हुई औद्वोगिक इंकाइयां खडी करने के लिए पैसे की जरूरत होती है? इस अनिवार्य सच्चाई से माओवाद मुंह छिपाकर भागता है।
                      भारत में माओवाद की बुनियाद ही हिंसक और भारत विरोधी है। माओवादी अपने देश के ही हंता हैं। जो समुदाय, जो गिरोह, जो संगठन और जो विचारधारा अपने देश की संप्रभुत्ता और संस्कृति का विरोधी होते हैं, उनके खिलाफ बोलते हैं, उनके खिलाफ सक्रियता रखते हैं, उन्हें सिर्फ और सिर्फ देशद्रोही कहा जाता है। चीन में ऐसे देशद्रोहियों की सजा सिर्फ मौत होती है,फांसी होती है औेर जेल की सजा होती है। मुस्लिम तानाशाही वाले देशों में ऐसे अपराध की सजा विभत्स होती है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि भारत में माओवाद की बुनियाद भारत विरोधी कैसे और क्यों हैं? इस प्रश्न के उत्तर जानने के लिए आपको माओ का भारत पर आक्रमन के इतिहास को जानना होगा और माओ को भारत विरोधी भावनाओं को जानना होगा। माओ ने जब 1962 में भारत पर आक्रमण किया था तब भारत में उनके अनुयायियों ने खुशियां मनायी थी, भारत में माओवाद के जन्मदाता कानू सन्याल ने माओ को भारत का आवर प्राइमनिस्टर कहा था, यानी कि भारत के भविश्य का शासक कहा था। कम्युनिस्टों ने माओ को युद्ध में जीताने और भारतीय सैनिकों के संहार करने के लिए सहयोग दिया था। भारतीय सैनिकों के हथियार और बारूद सुविधापूर्ण ढंग से नहीं मिले, इसके लिए प्रपंच किया था, कम्युनिस्ट यूनियनों ने आयुश फैक्टरियों में हडताल करायी थी, और चीनी सैनिकों के स्वागत में बैनर लगाये थें। ऐसी कम्युनिस्ट गद्दारी को कौन देशभक्त स्वीकार करेगा और जीवंत समर्थन देगा?
        भारत का लोकतंत्र जीवंत भी है और गतिमान भी है। लाख विसंगतियां और संकट होने के बावजूद लोकतंत्र के प्रति विश्वास कायम है। माओवाद, लेनिनवाद और मार्क्सवाद एक विफल और खारिज हुई विचारधारा है, जिसमें सिर्फ और सिर्फ हिंसा और तानाशाही निहित है। यही कारण है कि पहले सोवियत संघ का पतन हुआ, लेनिन, स्तालिन और मार्क्स की विचार धाराएं ध्वस्त हुई, फिर चीनं माओ की विचारधारा से अलग होकर पूंजीवाद के चरम पर पहुंच गया। यही कारण है कि भारत में भी आमलोगों और खासकर नयी पीढी के अंदर माओवाद ही नहीं बल्कि कार्ल मार्क्स, स्तालिन और लेनिन की विचारधाएं स्थान बना पायी। क्यूबा और वेनेजुएला जैसे देश में कम्युनिस्ट तानाशाही आयी जरूर पर खुद ही आत्मघाती बन गयी, उसके दुश्परिणामों से भयानक परिस्थितियां बन गयी, भूख-बेकारी में जनता फंस गयी। भारत मे भी माओवाद निरर्थक बन गया है। विश्वविद्यालयों में धमक रखने वाला और धमाल मचाने वाले माओवादी समर्थक युवाओं की कमी महसूस की जा सकती है, इसके घटने और निरर्थक बन जाने को महसूस किया जा सकता है। एक समय देश के 125 जिलों में माओवादियों का आतंक चरम पर था, इनकी हिंसा विभत्स थी पर आज प्रतिकात्मक रूप से मात्र 11 जिलों में इनका प्रभुत्व जरूर है, मात्र तीन जिले ही ऐसे हैं जहां पर इनकी उपस्थितियां विस्फोटक हैं। माओवादियों का लगातार आत्मसमर्पण करना इस बात के संकेत हैं कि इनका माओवाद के प्रति आत्मविश्वास डिगा है, हताशा और निराशा में खडे हैं। इनकी हताशा और निराशा के प्रति माओवाद की बन्दूक क्रांति का न होना है? भारत के जीवंत लोकतंत्र में तानाशाही और बन्दूक की क्रांति होगी नहीं फिर माओवाद का जींवंत होने की उम्मीद कहां बनती है? माओवाद बंदूक की क्रांति की उम्मीद छोडेंगा नहीं और भारत की जनता इनकी बन्दूक क्रांकि होने नहीं देगी। ऐसी परिस्थितियों में माओवाद का निरर्थक होना और माओवाद का संहार होना अनिवार्य ही है।

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