Sunday, June 15, 2025

ईरान ही है दोषी और हिंसक


                 


                       ईरान ही है दोषी और हिंसक
 
                              आचार्य श्रीहरि



ईरान और इस्राइल युद्ध की कसौटी पर तीन प्रश्न अति महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें जानना जरूरी है, तभी हम ईरान और इस्राइल युद्ध की आवश्यकता और अनावश्यकता को चिन्हित कर सकते हैं। सबसे पहले तो इस अवधारणा को भी अस्वीकार कर लीजिये कि हमेशाा शांति और सदभाव से ही किसी भी समस्या का समाधान हो सकता है। कभी-कभी हिंसा के बल पर भी शांति और सदभाव सुनिश्चित होती है। इसका सीधा उदाहरण अमेरिका और जापान है। दूसरे विश्वयुद्ध में जापान हिलटर के समूह मे था और जापान ने बिना कुछ सोचे-समझे अमेरिका पर हमला कर दिया, जबकि अमेरिका की तटस्थता थी और वह प्रत्यक्ष तौर पर दूसरे विश्व युद्ध में शामिल नहीं था, अप्रत्यक्ष तौर पर वह ब्रिटेन को जरूर मदद कर रहा था, ब्रिटेन को हथियार आपूर्ति कर रहा था। अमेरिका ने अपने उपर हमले का बहुत बडा प्रतिकार लिया, जापान के दो प्रमुख शहरो नागाशाकी और हिरोशिमा पर परमाणु बम गिरा दिया। भयंकर रक्तपात हुआ और फिर जापान अहिंसक देश बन गया। हथियार त्याग दिया, युद्ध छोड दिया, सेना रखना बंद कर दिया, सिर्फ रचनात्मकता अपनायी औैर अपने को आर्थिक शक्ति बनाया। आज जापान दुनिया की छठे नंबर की अर्थव्यवस्था है। जापान और अमेरिका आज अमिट मित्र हैं। कहने का अर्थ यह है कि दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति कोई गांधी-बुद्ध के अहिंसक उद्घोषों नहीं हुई थी, शांति की अपील से नहीं हुई थी, कोई सार्थक संवाद और समझौते से नहीं हुई थी बल्कि अमेरिका के बम वर्षा से उत्पन्न कारणों से हुई थी, जापान, जर्मनी, इटली के मित्र देशों की पराजय और विनाश हुई थी। इसके पीछे हथियारों की हिंसा थी, रक्तपिशाचुओं के संहार के पीछे भी जवाबी हिंसा थी, जवाबी युद्ध था। सबसे खास बात यह है कि दुनिया भर की मुस्लिम आतंकी संगठन जवाबी और प्रतिकार वाली हिंसा से ही नियंत्रित रहते हैं।
                             अब यहां यह प्रश्न उठता है कि तीने अतिआवश्यक प्रश्नों की कसौटी क्या है? एक प्रश्न ईरान का आतंकी संगठनों की मददगार और संरक्षणकारी हमले की भूमिका और दूसरा प्रश्न अल्ला की मर्जी और तीसरा प्रश्न इस्लाम काफिर मानसिकताएं। क्या ईरान की आतंकी भाषा और समर्पण ओझल है, अप्रत्यक्ष है? साक्षात है और प्रत्यक्ष है। हमास को उसने संरक्षण नहीं दिया था क्या? हमास को उसने आर्थिक् सहायता नही दी थी क्या? हमास को हमले के लिए हथियार ईरान ने नहीं दिये थे क्या? इस्राइल के ढाई हजार से अधिक निर्दोष लोगों को गाजर मूली की तरह काटने, बच्चियों और महिलाओं के साथ बलात्कार करने, महिलाओं के शवों के साथ बर्बरता करने और महिलाओं के शवों के साथ बलात्कार करने जैसी घृणात्मक और मानवता को शर्मसार करने वाली मानसिकताओं का ईरान ने समर्थन नहीं किया था क्या? हूती आतंकियो को खडा कर समुद्री मार्गो को हिंसा और आतंक का पर्याय ईरान ने नहीं बनाया है क्या? हूतियों और अन्य मुस्लिम आतंकियों को ललकार और राॅकेट लांचर उपलब्ध करा कर ईरान ने समुद्र मार्ग को न केवल प्रभावित कर दिया बल्कि खर्चीला भी बना दिया। समुद्री मार्ग बदलने से मानवीय जरूरतों की समस्याएं खडी हैं, महंगी हुई हैं, इसका दुष्प्रभाव सिर्फ इस्राइल को उठाना पडा है, ऐसा नहीं है, इसका दुष्प्रभाव तो अमेरिका और भारत पर भी पडा है। अमेरिका को समुद्री मार्ग पर जगह-जगह नौ सेनाएं खडी करनी पडी है, भारत को भी अपने समुद्री जहाजों की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त नौ सेनाओं की तैनाती करने के लिए बाध्य होना पडा है।
             इस्लामिक हिंसक व वर्चस्व की मानसिकता का ही प्रतिनिधित्व ईरान करता है। किसी भी मुसलमान से यह पूछ लीजिये फिर उनका जवाब सुन लीजिये। किसी मुसलमान से पूछिये कि हमास और अन्य मुस्लिम आतंकी संगठन किसकी मर्जी से हिंसक शक्ति रखते हैं फिर इनका जवाब होता है कि ये अल्ला की शक्ति है, अल्ला की शक्ति और मर्जी के बिना पता भी नहीं हिल सकता है। फिर इनसे पूछिए कि जब अल्ला की शक्ति सर्वश्रेष्ठ और अद्वितीय है और अल्ला की मर्जी के बिना पता भी नहीं हिल सकता है तो फिर ईरान की बर्बादी की कहानी इस्राइल किसकी मर्जी से लिख रहा है, इस्राइल की मिसाइलें किसकी मर्जी से ईरान के सैनिक कंमाडरो और परमाणु बमों का संहार कर रही हैं, तेल भंडारो पर प्रहार कर रही हैं? क्या यह सब इस्राइल अल्ला की मर्जी से कर रहा है? अगर इस्राइल अल्ला की मर्जी के खिलाफ यह सब कर रहा है तो फिर निश्चित तौर पर अल्ला की शक्ति बडी नहीं है, इस्राइल की ही शक्ति बडी है और प्रहारक भी है। ईरान की काफिर सोच के कारण ही उसकी इस्राइल दुश्मनी है। कुरान में काफिर को मारने, धमकाने और उनकी बहू-बेटियो की इज्जत लूटने और रखैल बनाने का आदेश है। इस्राइल अगर काफिर देश नहीं होता तो फिर ईरान का दुश्मन भी इस्राइल नहीं होता। ईरान फिर हमास और हिजबुल्लाह को इस्राइल के खिलाफ सक्रिय ही नहीं रखता और न ही हथियार और आर्थिक मदद देता। अगर इस सिद्धांत की परीक्षण आप करना चाहते हैं तो फिर किसी भी मुसलमान से पूछ लीजिये कि कुरान में काफिर को मारने का अधिकार है, और ईरान भी काफिर इस्राइल से जंग लड रहा है? इसके उत्तर में चालाक लोग चुप्पी साध लेंगे और अन्य मुस्लिम इसके समर्थन में जवाब देंगे। भारत के कश्मीर के पहलगाम में आतंकियों को इस्लाम की प्रहरी बताया गया था, मुस्लिम आतंकियों द्वारा धर्म पूछ पूद कर मारने की घटना को इस्लामिक पुण्य करार दिया गया था। ऐसे बयान और ऐसे वीडीओ सोशल मीडिया पर हजारों की संख्या में थे। कुछ साल पहले मलेशिया के शासक ने इस्राइल का नामोनिशान मिटाने का आह्वान मुस्लिम दुनिया से किया था। हालांकि बाद में मलेशिया के सुर बदल गये, ईरान की तरह हिंसक होना मलेशिया ने इनकार कर दिया था। अभी-अभी भारत और पाकिस्तान युद्ध को ही कसौटी पर देख लीजिये। फिर आपको काफिर मानसिकता की हिंसक गोलबंदी दिखायी देगी। तुर्की और अजरबैजान ने काफिर मानसिकता के कारण ही पाकिस्तान का साथ दिया और भारत के खिलाफ युद्ध लडने का काम किया।
                   फिलिस्तीन मुसलमानों की धरती है, यह मानसिकता भी आतंकी और हिंसक है और धृणित है। यह मानसिकता ही मुस्लिम-यहूदी युद्ध का कारण है और पर्याय है। फिलिस्तीन कभी भी मुस्लिमों की धरती नहीं रही है। इस्लाम की स्थापना कब हुई है?यहूदियों की स्थापना के कई सौ साल बाद इस्लाम का उदय हुआ है। फिलिस्तीन में यहूदियों का राज था और यरूशलम में यहूदी और ईसाई रहते थे। इस्लाम और यहूदियों के बीच कबीला युद्ध हुए। मुसलमानों ने फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया। यहूदियों को अपनी भूमि पर लौटने और अपना देश बनाने का अधिकार था। अमेरिका और यूरोप की मेहरबानी हुई और फिर आगे की कहानी स्पष्ट है। आज मुसलमानों को फिलिस्तीन में यहूदियों के साथ रहना पसंद नहीं है। जैसे भारत में मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ रहना पसंद नहीं किया था, पाकिस्तान अलग देश बनाया था और अब भारत में हिन्दुओं का संहार भी कर रहे हैं।
                     ईरान से इस्राइल को अस्तित्व खतरा है। ईरान में मजहबी तानाशाही है। ईरान में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सिर्फ हाथी के दांत होते हैं, खिलौने होते हैं, मनोरंजन के पात्र होते हैं। असली सत्ता मौलवी की होती है। मौलवी खामनेई के पास ही ईरान की असली सत्ता है। ईरान का परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण किसी भी स्थिति में नहीं है। ईरान इस्राइल और अमेरिका के विनाश के लिए ही परमाणु बम हासिल करना चाहता है। जिस तरह इस्लामिक आतंकियों की पहुंच अमेरिकी विमानो तक हुई और फिर मुस्लिम आतंकियों ने अमेरिकी वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला कर उसके वैभव और समृद्धि का नामोनिशान मिटा दिया था उसी प्रकार अगर ईरान ने परमाणु बम हासिल किया तो फिर परमाणु बम तक पहुंच हमास और हिज्जबुल्लाह जैसे मुस्लिम संगठनों की होगी फिर इस्राइल का नामोनिशान मिटना तय है। इसलिए इस्राइल का प्र्रहार और प्रतिकार अनिवार्य है। यह भी तय है कि इस्राइल किसी भी स्थिति मे ईरान की हिंसक नीति का दमन कर ही दम लेगा। ईरान की बर्बादी भी तय है। ईरान सयंम से रहें और अनावश्यक हिंसा और युद्ध के लिए कारण न बनें। लेकिन ईरान अब सिर्फ और सिर्फ अपनी बर्बाद की कहानी खुद लिख् रहा है।




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Wednesday, June 4, 2025

गोली और भूख के बीच फंसंे फिलिस्तीन

 



  

       गोली और भूख के बीच फंसंे फिलिस्तीन


                           आचार्य श्रीहरि


अभी-अभी एक वीडीओ ने दुनिया की मानवता को झकझौर कर रख दिया, हिंसा और प्रतिहिंसा विरोधियों को इतना भयभीत कर दिया कि वे सोचने के लिए मजबूर हो गये कि अब दुनिया में शांति की बात बैमानी हो गयी है, हिंसकों और प्रतिहिंसकों का राज कायम हो गया है, जिसकी लाठी उसकी भैंस का शासन हो गया है। अब प्रश्न यह उठता है कि वह वीडीओ क्या था और वह कितना विभत्स था, कितना डरावना था, कितना अमानवीय था, उस वीडीओ के लिए दोषी किसको मानें, क्या हिंसकों का समर्थन करने वालों और हिंसकों को संरक्षण देने वालों को जिंदा रहने का अधिकार भी है या नहीं? हम बात कर रहे है हमास और इस्राइल के बीच युद्ध और हिंसा आधारित वीडीओ का। गाजा पट्टी में खाना बांटने के आयोजन पर इस्राइली मिसाइलों ने हमला कर दिया और 36 लोगों को मौत का घाट उतार दिया, दो सौ से अधिक फिलिस्तीनियों को गंभीर रूप से लहूलुहान कर घायल कर दिया। गाजा पट्टी फिलिस्तीन का वह स्थान है जहां पर हमास का कब्जा है, हमास के समर्थकों की जगह है, हमास के लिए लडने वालों की जगह है, हमास ने यही पर इस्राइली बंधकोेें को बंधक बना कर रखे हुए हैं। फिर एक प्रश्न मानवता की कसौटी पर यह उठता है कि भूख से तडपते हुए लाखो लोगों की भूख कौन मिटायेगा, भूख से होने वाली मौतों को कौन रोकेगा, मुस्लिम यूनियनबाजी चलाने वाले मुस्लिम देश फिलिस्तीनियों के पुर्ननिर्माण मंें पैसे खर्च करने के लिए तैयार क्यों नहीं है? संयुक्त राष्ट्रसंघ का कहना है कि फिलिस्तीन को आर्थिक मदद नहीं मिली, इस्राइल के प्रहार और प्रतिहिंसा नहीं रोकी गयी तो फिर भूख से लाखों लोगों की मौत हो सकती है। लाखों लोग युद्ध के कारण बूरी स्थिति में फंसे हुए हैं, उनका जीवन संकट में हैं, वे इस्राइल की गोली से बच भी जायेंगे तो भी भूख से तड़प-तडप कर मरेंगे। उनके सामने भूख मिटाने के लिए न तो खाद्य सामग्री है और न ही दवाइयां। अंतर्राष्ट्रीय मदद के रास्ते बहुत ही सीमित हैं।

                  गाजा पट्टी लगभग कब्र बन चुकी है। गाजा पट्टी के 75 प्रतिशत भूभागो पर इस्राइल ने कब्जा कर रखा है। यहां पर इस्राइल की पूरी मनमर्जी चल रही है। उसकी मिसाइलें जब चाहती हैं तब हमला कर देती हैं, मिसाइल हमले आबादी वाले क्षेत्रों में ही क्यो होते हैं, सार्वजनिक जगहों पर क्यों होते हैं, स्कूलों-कालेजों पर क्यों होते हैं, अस्पतालों में क्यों होते हैं, सार्वजनिक वाहनों पर क्यों होते हैं? ऐसी जगहों पर मिसाइलें जब अराजक होंगी और मार करेंगी तो फिर नुकसान तो निर्दोष लोगों को ही होगा। निर्दोष लोगों ने ही अब तक अपनी जिंदगियां स्वाहा की है। आंकडे बताते हैं कि अब गाजा पट्टी में एक लाख लोगों की हत्याएं हुई हैं। इन एक लाख लोगों में मुश्किल से गिनती के कुछ लोग होंगे जिनका संबंध हमास और हिज्जबुल्लाह जैसे विभत्स आतंकी संगठनों से होंगे? फिर भी प्रतिहिंसा में निर्दोष जिंदगियां स्वाहा हो रही हैं। निदोष लोगों को मारे जाने की चिंता किसी को नहीं है। इस्राइल की इस कसौटी पर चिंता हो ही नही सकती है क्योंकि वह तो प्रतिहिंसा को ही अपना विजय मानता है और अपने अस्तित्व के लिए जरूरी मानता है, अचूक हथियार मानता है। हमास को भी चिंता नहीं है क्योंकि वह तो यही चाहता है, उसकी मंशा तो यही होती है कि इस्राइल जितना मुसलमानों का संहार करेगा, मुसलमानों को जितना प्रताडित करेगा उसका उतना ही समर्थन मुस्लिम वर्ग से आयेगा, हमास का हिंसक तत्व उतना ही मजबूत होगा।

                 सभी अमेरिका और यूरोप की ओर देख रहे हैं। अमेरिका और यूरोप से इस्राइल के प्रहार बचाने की उम्मीद कर रहे हैं। फिलिस्तीन में इस्राइल के खिलाफ अमेरिका और यूरोप से ही उम्मीद होती है। अमरिका और यूरोप के पैसे से फिलिस्तीन आबादी की रोजी रोटी चलती है और उनकी जिंदगियां गुलजार होती हैं। क्योंकि फिलिस्तीन वर्षो-वर्षो से हिंसा और प्रतिहिंसा की आग में धधक रही है। इस्लाम के स्थापना काल से ही वहां पर हिंसा और प्रतिहिंसा चल रही है। इस्लाम के आगमन के पहले वहां पर यहूदियों का राज था, यहूदियों का पूर्ण वर्चस्व था, थोडी बहुत आबादी ईसाइयों को थी। लेकिन मुस्लिम आबादी तो थी ही नहीं। फिर इस्लाम और यहूदियों के बीच कई लडाइयां हुई और यहूदियों का दमन हुआ, यहूदियों को हिंसा के बल पर दोयम नागरिक बनाया गया, फिलिस्तीन से पलायन करने के लिए विवश किया गया। जिस प्रकार से कश्मीर में हिन्दुओं को खदेडा गया, जिस प्रकार से कश्मीर को आतंकवाद और हिंसा के बल पर कब्जा कर इस्लाम की शक्ति बढायी गयी उसी प्रकार का खेल इस्लाम ने फिलिस्तीन में खेला था। दूसरे विश्व युद्ध के संकट के बाद यहूदियों ने अपनी माटी और अपना देश इस्राइल बनाया और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रतिहिंसा अपनायी।

                        फिलिस्तिनयों की जिंदगी की रक्षा करना, उनके लिए बाजार की व्यवस्था करना, उनके लिए रोजगार का सजृन करना, उनकी भूख को मिटाना आदि की जिम्मेदारी किसकी है? क्या यह सिर्फ अमेरिका और यूरोप की ही जिम्मेदारी है? क्या शेष दुनिया की कोई जिम्ेदारी नहीं है? खासकर मुस्लिम देशों की कोई जिम्मेंदारी नहीं है? दुनिया में 60 से अधिक मुस्लिम देश हैं। सउदी अरब, ईरान, मिश्र, कतर, तुर्की, अजरबैजान आदि दर्जनों मुस्लिम देश अमीर है और उनके पास पैसे भी बहुत ज्यादा है, ये अरबों-खरब डाॅलरों का निवेश यूरोप और अमेरिका में करते हैं? फिर ये फिलिस्तीन की मुस्लिम आबादी की भूख मिटाने के लिए सहायताएं देने में पीछे क्यों रहते हैं? फिलिस्तीन के पुर्नर्निमाण की बात आती है तो फिर ये मुस्लिम देश कभी भी आगे नहीं आते हैं, इनकी तिजारी खुलती नहीं है। ये सिर्फ अमेरिका और यूरोप को दोषी ठहराते हैं और अमेरिका व यूरोप से उम्मीद करते हैं कि ये फिलिस्तिनियों की भूख मिटायें और अपनी तिजोरी खोल कर रखें। दुनिया की कूटनीति में यह बात भी सामने आती है कि मुस्लिम देश ही हमास और हिज्जबुल्लाह को मदद देकर फिलिस्तीन समस्या को बकरार रखे हैं और हिंसक बना कर रखें हुए हैं। हमास का अपना कोई रोजगार नहीं है, अपना उसका कोई उद्योग धंधा नहीं है, उसकी अपनी कोई फैक्टरी नहीं है फिर उसके पास हथियार खरीदने के पैेसे कहा से आते हैं, आतंकी गतिविधियों को संचालित करने के लिए, हिंसक रखने के लिए पैसे कहां से आते हैं? ईरान तो हमास को हथियार देता है और इस्राइल के खिलाफ भडकाता भी है पर फिलिस्तीन की आबादी की भूख और विकास के लिए पैसे देने के लिए आगे भी नहीं आता है। 

                फिलिस्तीन आबादी की भलाई अब इसी में है कि हमास को रास्ते पर लाया जाना चाहिए और उसे युद्ध के भरोसे यहूदियों का सफाया करने के सपने देखने से रोका जाना चाहिए। अगर हमास के विभत्स हमले के समय मुस्लिम देशों ने हमास की आलोचना की होती तो फिर इस्राइल के आक्रोश और बदले की भावना की आंच कम की जा सकती थी, रोकी जा सकती थी। मुस्लिम देशों की बात छोड दीजिये पर इस्लाम के बुद्धिजीवियों ने भी हमास की आलोचना करने के लिए आगे नहीं आये थे। जबकि हमास का आतंकी हमला कितना विभत्स था, कितना रौंगटे खडा करने वाला था, कितना जहरीला था, यह सब कौन नहीं जानता है? अभी भी सैकडों बंधको को हमास अपने कब्जें में रखा है जिसे वह छोडने के लिए तैयार नहीं है। हमास बंधक छोडने के लिए तैयार होगा तभी दुनिया का जनमत इस्राइल की प्रतिहिंसा और प्रहार को रोकने के लिए दबाव बना सकता है। मुस्लिम देश और मुस्लिम बुद्धिजीवी बंधकों की रिहाई के लिए हमास तैयार नहीं कर सकेंगे तो फिर फिलिस्तीन की लाखों मुस्लिम आबादी भूख से मरने के लिए विवश होगी।


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