Sunday, June 29, 2025

शंघाई चीनी समूह से भारत को अलग होना चाहिए

 


शंघाई चीनी समूह से भारत को अलग होना चाहिए


                       आचार्य श्रीहरि


चीन के वर्चस्व वाले शंघाई शिखर सहयोग संगठन की बैठक में भारत पराजित हुआ, भारत का अपमान हुआ, भारत को अकेला खड़ा होने के लिए मजबूर कर दिया गया। जबकि पाकिस्तान की जीत हुई, पाकिस्तानी आतंक की अवधारणा को समर्थन मिला, पाकिस्तान अपनी आतंकी अवधारणा का ढिढोरा कैसे नीं पिटता? चीन की चरणवंदना वाली बैठक और संगठन में भारत अकेला क्यों पडा, भारत की हार क्यो हुई, पाकिस्तान की जीत क्यों हुई, आतंक की अवधारणा क्यों प्रशंसित हुई? भारत का अगला कदम क्या होगा? क्या भारत शंघाई शिक्षर सहयोग संगठन की सदस्यता छोड़ सकता है? पाकिस्तान और चीन वाली चरणवंदना वाले संगठन में सदस्यता की अनिवार्यता पर विचार होना ही चाहिए।
                   शंघाई सहयोग संगठन का वर्तमन स्वरूप आतंकी है, हिंसक है, शांति विरोधी है और चीनी वर्चस्व वाला है। यह सब बेपर्द हो चुका है। क्योकि इसने भारत में विभत्स और खतरनाक आतंकी हमले पहलगाम का विरोध करने से इनकार कर दिया। जबकि पाकिस्तान के अंदर अस्मिताओं की लडाई को भी आतंक मानकर विरोध कर दिया गया। बलूचिस्तान में मानवाधिकार का घोर और हिंसक उल्लंघन के बाद भी पाकिस्तान की आतंकी अवधारणा को मान्यता मिली, प्रशंसित की गयी।
इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि शंघाई बैठक के बाद सामूहिक घोषणा पत्र सहमति नहीं बन सकी और भारत ने सामूहिक घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया। भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने सीधे तौर पर कह दिया कि पहलगाम आतंकी हमले का विरोध न करना और पाकिस्तान के आंतरिक अस्मिता की लडाई को भी आतंक की परिभाषा के अंदर देखना और मानना घोर आश्चर्य की बात है, शघाई सहयोग संगठन की मूल घोषणाओं और मान्यताओं के खिलाफ है।
                   ऐसे देखा जाये तो शंघाई सहयोग संगठन के इतिहास में यह कलंकित करने वाली घटना है और अपने द्वारा स्थापित विकास, उन्नति और शांति को दफन करने वाली घटना है। इसके पूर्व इस संगठन में कभी भी ऐसा नही हुआ था कि सामूहिक घोषणा पत्र जारी नहीं हो सका और न ही इस पर सहमति बन पायी। इसके पूर्व दुनिया की समस्याओं और जटिलताओं पर घंघाई सहयोग संगठन की बैठक में गंभीर और सकारात्मक बहसें हुई थी ओर बहसों में मतभिन्नता होने के बावजूद भी सहमति बनती रहती थी और दुनिया के जनमत को अपनी ओर आकर्षित करती रहती थी। अमेरिका ने कभी इस संगठन के खिलाफ अपना भडास निकाला था और इस संगठन को खतरनाक भी बताया था, अमेरिकी हितों के खिलाफ बताया था। सबसे बडी बात यह है कि शंघाई सहयोग संगठन ने कभी भी अपने सहयोग, शांति और विकास की रणनीति पर चला नहीं, क्योकि चीन और रूस खुद ही हिंसक देश है, जिन्होंने खुद अपने पडोसियों और दुनिया को दमन किया है, पीडित किया और संहार भी किया है फिर सहयोग और शांति की उम्मीद कहां से बनती है? सिर्फ और सिर्फ शंघाई सहयोग संगठन एक प्रहसन है, चीनी हितों की रक्षा करने वाला एक मोहरा है, हथकंडा है।
                   भारत इस संगठन का सदस्य ही क्यों बना था?  भारत ने 2017 शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य बना था। इसके पूर्व भारत पर्यवेक्षक देश के रूप में शामिल होता रहा था। नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में ही यह आत्मघाती नीति बनी थी। नरेन्द्र मोदी को किसने यह सलाह दी थी कि शंघाई सहयोग संगठन में शामिल होना एक श्रेयकर कदम होगा। यह एक आत्मघाती कदम था और भारत के हितों को नुकसान पहुंचाने वाला कदम था। इसके लिए नरेन्द्र मोदी को दोषी ठहराया जा सकता है। शंघाई चीन का एक शहर है और इस शहर पर चीन बहुत ही नाज करता है और दुनिया को शंघाई के नाम पर चमत्कृत करता है। शंघाई को मैनचेस्टर भी कहा जाता है। यह एक औद्योगिक नगरी भी है, यहां पर सस्ती और व्यवस्थित फैक्टिरियां हैं जो उत्पादन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण और अग्रणी मानी जाती है। शंघाई की फैक्टिरियां में बनने वाली वस्तुओं के लिए बाजार के निर्माण के लिए भी चीन की यह नीति थी। चीन दुनिया में सस्ती समानों के निर्माण में अग्रणी है। चीन अपने हितों की रक्षा के लिए शंघाई जैसे छोटे-छोटे समूहों में मोहरा और हथकंडा खडा करता रहा है।
             चीन हमारा स्थायी दुश्मन है। चीन हमारा संहार चाहता है। चीन ने हमारे खिलाफ एक मजबूत गोलबंदी बनायी हुई है। दुनिया के हर मंच पर चीन हमारा विरोध करता है और हमें अपमानित करता है। शंघाई सिर्फ और सिर्फ चीनी वर्चस्व वाला संगठन है। फिर नरेन्द्र मोदी की सरकार ने कैसे यह समझ लिया कि शंघाई सहयोग संगठन भारत के लिए एक अवसर है, समृद्धि के प्रतीक है, उन्नति के लिए सहायक सिद्ध होगा। चीन ने भारत को मूर्ख भी बनाया है। भारत भी मूर्ख बन गया और वह भी आसानी स ेमूर्ख बन गया। चीन ने प्रस्ताव दिया था कि भारत इस संगठन की अध्यक्षता करे। चीन की इच्छानुसार भारत 2023 में इस संगठन का अध्यक्ष था। चीन को यह मालूम था कि भारत की अध्यक्षता करने पर भी उसके हित सुरक्षित रहेंगे, क्योंकि भारत अध्यक्ष होने के बावजूद कुछ नहीं कर सकता है, शंघाई सहयोग संगठन के नियमावली और मूल चरित्र में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता है। वर्चस्व तो उनका ही है, मूल चरित्र पर परिवर्तन के लिए जरूरी वोट भी भारत के पास नहीं है। भारत तो अकेला है। अन्य सदस्य देश जैसे पाकिस्तान,कांजाकिस्तान, किर्गिस्तान, रूस और ताजिकिस्तान कभी भारत का साथ नहीं देंगे। पाकिस्तान, काजीकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान एक तरह से चीन के ही गुलाम है। जहां तक रूस का प्रश्न है तो फिर ब्लादमिर पुतिन की पैंतरेबाजी को कौन नही जानता है? सोवियत संघ की तरह रूस विश्वसनीय नहीं है। अभी-अभी पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध में पुतिन ने भारत का नैतिक समर्थन करने से भी इनकार कर दिया था। जब भारतीय हित की सुरक्षा की बात आयेगी तब पुतिन और उनका रूस शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में चुप्पी साध साध लेंगे। रूस ने अभी-अभी समाप्त हुई शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में भारत की चिंता का समर्थन करने की जरूरत भी नहीं समझी।
                   क्या भारत अपमानित होने के लिए शंघाई समूह की सदस्या बनाये रखें हुए है?                  शंघाई सहयोग संगठन में पाकिस्तान की उपस्थिति भी चिंताजनक है, मूल भावना और मूल चरित्र के विपरीत है और दोहरे चरित्र का परिचायक है। यह कैसी मूल भावना है कि एक हिंसक और आतंकी देश को सदस्य बना देना। कौन नहीं जानता है कि पाकिस्तान का असली चरित्र कैसा है, उसकी भूल भावना और मूल चरित्र कैसा है? पाकिस्तान एक आतंकी देश है, एक हिंसक देश है। यह सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में आतंक की आउटसोर्सिंग की है, आतंक की आउट सोर्सिंग कर दुनिया की शांति और सदभाव को नुकसान पहुंचाया है। अभी-अभी ज्ञात हुआ है कि चीन ने पाकिस्तान की जासूसी मदद की थी। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ने रहस्योदघाटन किया है कि चीन ने सेटेलाइट जानकारी पाकिस्तान को उपलब्ध करायी थी और पाकिस्तान ने इस जानकारी को हमले में उपयोग किया था। अभी-अभी पाकिस्तान और चीन की एक और जुगलबंदी देखने को मिली है। शघाई सहयोग संगठन की बैठक में चीन ने पाकिस्तान को साथ दिया और कह दिया कि पाकिस्तान के अंदर होने वाले आतंकी घटना घातक और मानवता के प्रति अपराध है। जबकि पाकिस्तान एक खुद आतंकी देश है। पाकिस्तान और चीन की जुगलबंदी का ही प्रमाण है कि पहलगाम की आतंकी घटना के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने शंघाई सहयोग संगठन ने इनकार कर दिया था। जबकि भारत ने पहलगाम आतंकी घटना पर निंदा प्रस्ताव पारित कराने की पूरी कोशिश की थी, पर किसी सदस्य देश ने भारत का साथ नहीं दिया।
                भारत को अपमान से बचना है, भारत को अपने हितों को सुरक्षित रखना है, भारत अगर पाकिस्तान को बेनकाब करना चाहता है और उसे आईना दिखाना चाहता है तो फिर चीन और पाकिस्तान के खिलाफ तन कर खडा होना होगा। शंघाई समूह जैसे चीनी और पाकिस्तानी मूल भावना के प्रतीकों से अलग होना ही चाहिए। शंघाई चीनी समूह से भारत को अलग हो जाना चाहिए। भारत अपना पैसा और समय शंघाई चीनी समूह पर बेअर्थ खर्च कर रहा  है

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Thursday, June 19, 2025

जिहाद की डाॅक्टरी पढाता है ईरान







               जिहाद की डाॅक्टरी पढाता है ईरान
                                  जिहाद पढ़़कर आते हैं और बनते हैं जिहादी


             
                              ( आचार्य श्रीहरि )


ईरान से पन्द्रह सौ मुस्लिम छात्रों को भारत सरकार वापस ला रही है। कई विमान आ चुके हैं। कई आने वाले हैं। इनको लाने के लिए करोडों रूपये खर्च होंगे। ये सभी मुस्लिम छात्र ईरान के अंदर खतरे में थे और इन पर इस्राइल की मिसाइलें गिरने का डर था। इस्राइल से इनके जान को खतरा था। इस्राइल के मिसाइल हमलों से ईरान की राजधानी तेहरान और अन्य प्रमुख शहर कब्र बन रहे हैं। किसी भी देश का फर्ज बनता है कि वह अपने नागरिकों को खतरे की जगह से सकशुल बाहर निकाले और उनको सुरक्षित जगह पहुंचाये। इस सिद्धांत पर भारत सरकार का कदम सराहनीय है। पर एक प्रश्न यह उठता है कि क्या भस्मासुरों को वापस लाना, क्या हिंसक और आतंकी मानसिकता के लोगों को वापस लाना जैसे कदम मुसीबतों का आमंत्रण देना नहीं है, अपना ही संहार करने जैसा नहीं है, हिंसा और आतंकवाद को समृद्ध करना नहीं है? सच तो यह है कि ईरान जिहाद की डाॅक्टरी पढाता है और ईरान के विश्वविद्यालयों से निकले डाॅक्टर धारी जिहाद जैसे इस्लामिक कार्यो में सक्रिय रहते हैं, हमास, हिजबुल्लाह और हूती, आईएस जैसे मुस्लिम आतंकी संगठनो के लिए हथियार का काम करते हैं।
                  भारत ही दुनिया का एक मात्र देश है जो अपने भस्मासुरों, आतंकियों और हिंसकों तथा मजहबी तौर पर पागल मानसिकता के लोगों को विदेशों से वापस लाने और उनकी चरणवंदना करने में लगा रहता है, करोडों और अरबों रूपये खर्च कर देता है। यह विचारण करने की जरूरत भी नहीं समझा जाता कि जिनको वापस देश लाया जा रहा है उनकी पृष्ठभूमि क्या है, जिनकी कहीं कोई आतंकी और हिंसक काफिर मानसिकता तो नहीं है, कहीं ये भारत विरोधी अभियान और मानसिकता के सहचर तो नहीं रहे हैं। ईरान से भारत लाये जा रहे पन्द्रह सौ छात्रों में अधिकतर कश्मीरी छात्र हैं जो कश्मीर से इस्लामिक शिक्षा ग्रहण करने के लिए ईरान गये थे। कश्मीर ही वह जगह है जहां से मुसलमानों ने हिंसा के बल पर हजारों हिन्दुओं को कत्ल कर दिया और लाखों हिन्दुओं को कश्मीर से भगा दिया। कश्मीर में इस्राइल विरोधी मानसिकताओं का बाजार लगा हुआ है। कश्मीर में इस्राइल के खिलाफ रोज प्रदर्शन हो रहे हैं और मुस्लिम यूनियन की हिंसक जिहाद जारी है। मुस्लिम देशों से पढकर आने वाले मुस्लिम छात्र भारत विरोधी गतिविधियों और पाकिस्तान परस्ती अभियानों में लगे रहते हैं।
             ईरान पढने जाते ही क्यों हैं? ईरान की एमबीबीएस डिग्री और अन्य डिग्रियां कौन सी समृद्ध होती हैं? एक जिहाद की मानसिकता से ग्रसित देश में शिक्षा का कौन सा वतावरण समृद्ध होता है? जिहाद की मानसिकता से ग्रसित देश में आधुनिक ज्ञान और विज्ञान की उम्मीद ही बेकार है, बैमानी है, खुशफहमी है। मालूम यह हुआ कि जो पन्द्रह सौ छात्र लाये जा रहे है वे अधिकतर मेडिकल की शिक्षा लेने गये थे। कहने का अर्थ यह है कि पे सभी एमबीबीएस की डिग्री लेने गये थे। ये एमबीबीएस की डिग्री लेने के बाद भारत में डाॅक्टर बन जायेंगे। अधिकतर छात्र जम्मू कश्मीर का प्रतिनिधित्व करते हैं। जम्मू-कश्मीर में एक तरह से जिहाद चल रहा है, अपने बच्चों को ईरान सहित अन्य मुस्लिम देशों में भेजों और इंजीनियर-डाॅक्टर बनाओ। ईरान और अन्य मुस्लिम देशों में भारत के मुस्लिम बच्चों को रियायती दर पर मेडिकल शिक्षा उपलब्ध कराया जाता है। एक सूत्र का कहना है कि मुश्किल से 20 लाख रूपये में मेडिकल की शिक्षा हासिल हो जाती है। सबसे बडी बात यह है कि कई मुस्लिम संगठन ऐसे हैं जो ईरान और अन्य मुस्लिम देशों में मेडिकल-इंजीनियरिगंग करने वाले मुस्लिम छात्रों को धन उपलब्ध करते हैं। मेडिकल शिक्षा के लिए भारत में कमसे कम एक करोड तो फिर अमेरिका और यूरोप में करोड़ों रूपये खर्च करने पडते हैं।
                    ईरान सहित अन्य मुस्लिम देशों में मेडिकर और इंजीनियरिंग की शिक्षा के दौरान जिहाद की भी शिक्षा दी जाती है। इस्लाम में जिहाद अनिवार्य है। काफिर मानसिकता भी जागजाहिर है। इस्लाम और कुरान कहता है कि काफिरों के प्रति निष्ठुर रहो, उनसे दोस्ती कर विश्वासघात करो, उनकी हत्या करो, इनकी पत्नियों को रखैल बनाओ। काफिर उसे कहते हैं जो इस्लाम को नही मानते हैं। एक मुसलमान के लिए हिन्दू, ईसाई यहूदी सब काफिर हैं। इसीलिए काफिर देश में इन्हें इस्लाम का शासन चाहिए। दुनिया में हर जगह सिर्फ मुसलमानों को ही अन्य सभी धर्मो से समस्या भी इसी कारण होती है, इनका आतंक और हिंसा के पीछे की कहानी भी यही है। ईरान एक घोर इस्लामिक मान्यताओं का देश है। ईरान अपने देश में पढने वाले हर छात्र को इस्लाम की हिंसक मान्यताओं पर सौ प्रतिशत खरा उतरने का संदेश देता है और पालन करने की अनिवार्यता भी सुनिश्चित करता है। कहने का अर्थ यह हुआ कि ईरान से वापसी करने वाले छात्र पूरी तरह से जिहादी रंग में रंगे होंगे।
                        ये मुस्लिम छात्र कोई पढाकू भी नहीं होते हैं, कोई ज्ञानी भी नहीं होते हैं। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के भी सहचर नहीं होते हैं,  कोई विशेष प्रतिभाशाली भी नहीं होते हैं। फिर क्या होते हैं? ये सिर्फ और सिर्फ अनपढ होते हैं, मुल्ला संस्कृति के होते हैं। अधकचरे दिमाग के होते हैं। जिन्हें भारत में मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में जगह नहीं मिल पाती हैं, योग्य नहीं समझा जाता है वैसे ही छात्र मुस्लिम इेशों में जाते हैं। जहां पर प्रतियोगिता का कोई स्थान नही होता है, प्रतिभा का कोई स्थान नहीं होता है, चयन की कोई मानक प्रक्रिया नहीं होती है। शैक्षणिक योग्यता का भी कोई परीक्षण नही होता है। शैक्षनिक योग्यता के कागजों को बिना परीक्षण कराये स्वीकार कर लिया जाता है। भारत में मेडिकर-इंजीनियरिंग शिक्षा के लिए अयोग्य छात्र मुस्लिम देशों में योग्य कैसे बन जाते हैं। इस पर भारत सरकार को संज्ञान लेने की जरूरत है।
                 सबसे बडी बात यह है कि ये मुस्लिम देशों में शिक्षा ग्रहण करने के दौरान भारत की ही कब्र खोदते हैं, भारत को एक हिंसक देश बताते हैं, भारत में इस्लाम खतरे का नारा लगाते हैं, पाकिस्तान परस्ती दिखाते हैं। ऐसा कई उदाहरण सामने हैं। शेख अतीक का प्रकरण बहुत ही घातक और जिहादी है। यह प्रकरण सुषमा स्वरराज से भी जुडा हुआ है। सुषमा स्वराज उस समय भारत के विदेश मंत्री थी। फिलिपीन से शेख अतीक नामक मुस्लिम छात्र ने सुषमा स्वराज से मदद मांगी थी और नया पासपोर्ट जारी करने की मांग की थी। शेख अतीक ने अपनी राष्ट्रीयता कश्मीरी बतायी थी, उसकी सोशल मीडिया प्रोफाइल पाकिस्तान परस्ती से भरी पडी थी। इस पर सुषमा स्वराज ने उससे कहा था कि भारतीय पासपोर्ट सिर्फ और सिर्फ भारतीय राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करने वालों के लिए होता है। फिर जान बचाने के लिए शेख अतीक ने अपने आवेदन में भारतीय लिखा था फिर सुषमा स्वराज ने उसकी मदद की थी। ईरान से वापसी करने वाले मुस्लिम छात्रों को भी भारत तभी याद आता है जब वे संकट में होते हैं, नही ंतो ये शायर मोहम्मद इकबाल की तरह जिहादी होते हैं और कहते हैं कि हम हैं मुसलमां और सारा जहां हमारा। शायर मोहम्मद इकबाल ने लिखा था कि सारे जहां से अच्छा हिन्दूस्ता हमारा, जब उस पर जिहादी रंग चढा तब उसने लिखा था कि हम हैं मुसलमां और सारा जहां हमारा। यानी कि यह धरती और आसमान सिर्फ मुसलमानों के लिए है।
                      छात्र भारत लौट कर करेंगे क्या? ये इस्लामिक जिहाद के ही सहचर बनेंगे। ईरान में मजहबी शिक्षा और मानसिकता से ग्रसित ज्ञान का दुरूपयोग हिन्दुओं के संहार  में करेंगे और इस्लाम के प्रचार में लगायेंगे। अमेरिका में पढने वाले कई भारतीय मुस्लिम छात्र इस्राइल के खिलाफ हिंसक गतिविधियो में शामिल रहे हैं और अमेरिका के हितों का नुकसान पहुंचाने के साथ ही साथ भारत के हितों की भी कब्र खोदते हैं। इस्राइल के साथ हमारी सामरिक दोस्ती है, समझदारी भी है। अमेरिका ने ऐसे मुस्लिम छात्रो को निकालना शुरू कर दिया है, दंडित करना शुरू कर दिया है। भारत को भी अब मुस्लिम छात्रों के लिए कोई न कोई बंधन बनाना होगा और निर्देश देना होगा। खासकर मुस्लिम देशों की शिक्षा को मान्यता से वंचित करना होगा। उचित चयन प्रक्रिया का पालन नहीं करने वाले देशों के शिक्षा को शून्य घोषित करना होगा।


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Sunday, June 15, 2025

ईरान ही है दोषी और हिंसक


                 


                       ईरान ही है दोषी और हिंसक
 
                              आचार्य श्रीहरि



ईरान और इस्राइल युद्ध की कसौटी पर तीन प्रश्न अति महत्वपूर्ण हैं, जिन्हें जानना जरूरी है, तभी हम ईरान और इस्राइल युद्ध की आवश्यकता और अनावश्यकता को चिन्हित कर सकते हैं। सबसे पहले तो इस अवधारणा को भी अस्वीकार कर लीजिये कि हमेशाा शांति और सदभाव से ही किसी भी समस्या का समाधान हो सकता है। कभी-कभी हिंसा के बल पर भी शांति और सदभाव सुनिश्चित होती है। इसका सीधा उदाहरण अमेरिका और जापान है। दूसरे विश्वयुद्ध में जापान हिलटर के समूह मे था और जापान ने बिना कुछ सोचे-समझे अमेरिका पर हमला कर दिया, जबकि अमेरिका की तटस्थता थी और वह प्रत्यक्ष तौर पर दूसरे विश्व युद्ध में शामिल नहीं था, अप्रत्यक्ष तौर पर वह ब्रिटेन को जरूर मदद कर रहा था, ब्रिटेन को हथियार आपूर्ति कर रहा था। अमेरिका ने अपने उपर हमले का बहुत बडा प्रतिकार लिया, जापान के दो प्रमुख शहरो नागाशाकी और हिरोशिमा पर परमाणु बम गिरा दिया। भयंकर रक्तपात हुआ और फिर जापान अहिंसक देश बन गया। हथियार त्याग दिया, युद्ध छोड दिया, सेना रखना बंद कर दिया, सिर्फ रचनात्मकता अपनायी औैर अपने को आर्थिक शक्ति बनाया। आज जापान दुनिया की छठे नंबर की अर्थव्यवस्था है। जापान और अमेरिका आज अमिट मित्र हैं। कहने का अर्थ यह है कि दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति कोई गांधी-बुद्ध के अहिंसक उद्घोषों नहीं हुई थी, शांति की अपील से नहीं हुई थी, कोई सार्थक संवाद और समझौते से नहीं हुई थी बल्कि अमेरिका के बम वर्षा से उत्पन्न कारणों से हुई थी, जापान, जर्मनी, इटली के मित्र देशों की पराजय और विनाश हुई थी। इसके पीछे हथियारों की हिंसा थी, रक्तपिशाचुओं के संहार के पीछे भी जवाबी हिंसा थी, जवाबी युद्ध था। सबसे खास बात यह है कि दुनिया भर की मुस्लिम आतंकी संगठन जवाबी और प्रतिकार वाली हिंसा से ही नियंत्रित रहते हैं।
                             अब यहां यह प्रश्न उठता है कि तीने अतिआवश्यक प्रश्नों की कसौटी क्या है? एक प्रश्न ईरान का आतंकी संगठनों की मददगार और संरक्षणकारी हमले की भूमिका और दूसरा प्रश्न अल्ला की मर्जी और तीसरा प्रश्न इस्लाम काफिर मानसिकताएं। क्या ईरान की आतंकी भाषा और समर्पण ओझल है, अप्रत्यक्ष है? साक्षात है और प्रत्यक्ष है। हमास को उसने संरक्षण नहीं दिया था क्या? हमास को उसने आर्थिक् सहायता नही दी थी क्या? हमास को हमले के लिए हथियार ईरान ने नहीं दिये थे क्या? इस्राइल के ढाई हजार से अधिक निर्दोष लोगों को गाजर मूली की तरह काटने, बच्चियों और महिलाओं के साथ बलात्कार करने, महिलाओं के शवों के साथ बर्बरता करने और महिलाओं के शवों के साथ बलात्कार करने जैसी घृणात्मक और मानवता को शर्मसार करने वाली मानसिकताओं का ईरान ने समर्थन नहीं किया था क्या? हूती आतंकियो को खडा कर समुद्री मार्गो को हिंसा और आतंक का पर्याय ईरान ने नहीं बनाया है क्या? हूतियों और अन्य मुस्लिम आतंकियों को ललकार और राॅकेट लांचर उपलब्ध करा कर ईरान ने समुद्र मार्ग को न केवल प्रभावित कर दिया बल्कि खर्चीला भी बना दिया। समुद्री मार्ग बदलने से मानवीय जरूरतों की समस्याएं खडी हैं, महंगी हुई हैं, इसका दुष्प्रभाव सिर्फ इस्राइल को उठाना पडा है, ऐसा नहीं है, इसका दुष्प्रभाव तो अमेरिका और भारत पर भी पडा है। अमेरिका को समुद्री मार्ग पर जगह-जगह नौ सेनाएं खडी करनी पडी है, भारत को भी अपने समुद्री जहाजों की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त नौ सेनाओं की तैनाती करने के लिए बाध्य होना पडा है।
             इस्लामिक हिंसक व वर्चस्व की मानसिकता का ही प्रतिनिधित्व ईरान करता है। किसी भी मुसलमान से यह पूछ लीजिये फिर उनका जवाब सुन लीजिये। किसी मुसलमान से पूछिये कि हमास और अन्य मुस्लिम आतंकी संगठन किसकी मर्जी से हिंसक शक्ति रखते हैं फिर इनका जवाब होता है कि ये अल्ला की शक्ति है, अल्ला की शक्ति और मर्जी के बिना पता भी नहीं हिल सकता है। फिर इनसे पूछिए कि जब अल्ला की शक्ति सर्वश्रेष्ठ और अद्वितीय है और अल्ला की मर्जी के बिना पता भी नहीं हिल सकता है तो फिर ईरान की बर्बादी की कहानी इस्राइल किसकी मर्जी से लिख रहा है, इस्राइल की मिसाइलें किसकी मर्जी से ईरान के सैनिक कंमाडरो और परमाणु बमों का संहार कर रही हैं, तेल भंडारो पर प्रहार कर रही हैं? क्या यह सब इस्राइल अल्ला की मर्जी से कर रहा है? अगर इस्राइल अल्ला की मर्जी के खिलाफ यह सब कर रहा है तो फिर निश्चित तौर पर अल्ला की शक्ति बडी नहीं है, इस्राइल की ही शक्ति बडी है और प्रहारक भी है। ईरान की काफिर सोच के कारण ही उसकी इस्राइल दुश्मनी है। कुरान में काफिर को मारने, धमकाने और उनकी बहू-बेटियो की इज्जत लूटने और रखैल बनाने का आदेश है। इस्राइल अगर काफिर देश नहीं होता तो फिर ईरान का दुश्मन भी इस्राइल नहीं होता। ईरान फिर हमास और हिजबुल्लाह को इस्राइल के खिलाफ सक्रिय ही नहीं रखता और न ही हथियार और आर्थिक मदद देता। अगर इस सिद्धांत की परीक्षण आप करना चाहते हैं तो फिर किसी भी मुसलमान से पूछ लीजिये कि कुरान में काफिर को मारने का अधिकार है, और ईरान भी काफिर इस्राइल से जंग लड रहा है? इसके उत्तर में चालाक लोग चुप्पी साध लेंगे और अन्य मुस्लिम इसके समर्थन में जवाब देंगे। भारत के कश्मीर के पहलगाम में आतंकियों को इस्लाम की प्रहरी बताया गया था, मुस्लिम आतंकियों द्वारा धर्म पूछ पूद कर मारने की घटना को इस्लामिक पुण्य करार दिया गया था। ऐसे बयान और ऐसे वीडीओ सोशल मीडिया पर हजारों की संख्या में थे। कुछ साल पहले मलेशिया के शासक ने इस्राइल का नामोनिशान मिटाने का आह्वान मुस्लिम दुनिया से किया था। हालांकि बाद में मलेशिया के सुर बदल गये, ईरान की तरह हिंसक होना मलेशिया ने इनकार कर दिया था। अभी-अभी भारत और पाकिस्तान युद्ध को ही कसौटी पर देख लीजिये। फिर आपको काफिर मानसिकता की हिंसक गोलबंदी दिखायी देगी। तुर्की और अजरबैजान ने काफिर मानसिकता के कारण ही पाकिस्तान का साथ दिया और भारत के खिलाफ युद्ध लडने का काम किया।
                   फिलिस्तीन मुसलमानों की धरती है, यह मानसिकता भी आतंकी और हिंसक है और धृणित है। यह मानसिकता ही मुस्लिम-यहूदी युद्ध का कारण है और पर्याय है। फिलिस्तीन कभी भी मुस्लिमों की धरती नहीं रही है। इस्लाम की स्थापना कब हुई है?यहूदियों की स्थापना के कई सौ साल बाद इस्लाम का उदय हुआ है। फिलिस्तीन में यहूदियों का राज था और यरूशलम में यहूदी और ईसाई रहते थे। इस्लाम और यहूदियों के बीच कबीला युद्ध हुए। मुसलमानों ने फिलिस्तीन पर कब्जा कर लिया। यहूदियों को अपनी भूमि पर लौटने और अपना देश बनाने का अधिकार था। अमेरिका और यूरोप की मेहरबानी हुई और फिर आगे की कहानी स्पष्ट है। आज मुसलमानों को फिलिस्तीन में यहूदियों के साथ रहना पसंद नहीं है। जैसे भारत में मुसलमानों ने हिन्दुओं के साथ रहना पसंद नहीं किया था, पाकिस्तान अलग देश बनाया था और अब भारत में हिन्दुओं का संहार भी कर रहे हैं।
                     ईरान से इस्राइल को अस्तित्व खतरा है। ईरान में मजहबी तानाशाही है। ईरान में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री सिर्फ हाथी के दांत होते हैं, खिलौने होते हैं, मनोरंजन के पात्र होते हैं। असली सत्ता मौलवी की होती है। मौलवी खामनेई के पास ही ईरान की असली सत्ता है। ईरान का परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण किसी भी स्थिति में नहीं है। ईरान इस्राइल और अमेरिका के विनाश के लिए ही परमाणु बम हासिल करना चाहता है। जिस तरह इस्लामिक आतंकियों की पहुंच अमेरिकी विमानो तक हुई और फिर मुस्लिम आतंकियों ने अमेरिकी वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हमला कर उसके वैभव और समृद्धि का नामोनिशान मिटा दिया था उसी प्रकार अगर ईरान ने परमाणु बम हासिल किया तो फिर परमाणु बम तक पहुंच हमास और हिज्जबुल्लाह जैसे मुस्लिम संगठनों की होगी फिर इस्राइल का नामोनिशान मिटना तय है। इसलिए इस्राइल का प्र्रहार और प्रतिकार अनिवार्य है। यह भी तय है कि इस्राइल किसी भी स्थिति मे ईरान की हिंसक नीति का दमन कर ही दम लेगा। ईरान की बर्बादी भी तय है। ईरान सयंम से रहें और अनावश्यक हिंसा और युद्ध के लिए कारण न बनें। लेकिन ईरान अब सिर्फ और सिर्फ अपनी बर्बाद की कहानी खुद लिख् रहा है।




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Wednesday, June 4, 2025

गोली और भूख के बीच फंसंे फिलिस्तीन

 



  

       गोली और भूख के बीच फंसंे फिलिस्तीन


                           आचार्य श्रीहरि


अभी-अभी एक वीडीओ ने दुनिया की मानवता को झकझौर कर रख दिया, हिंसा और प्रतिहिंसा विरोधियों को इतना भयभीत कर दिया कि वे सोचने के लिए मजबूर हो गये कि अब दुनिया में शांति की बात बैमानी हो गयी है, हिंसकों और प्रतिहिंसकों का राज कायम हो गया है, जिसकी लाठी उसकी भैंस का शासन हो गया है। अब प्रश्न यह उठता है कि वह वीडीओ क्या था और वह कितना विभत्स था, कितना डरावना था, कितना अमानवीय था, उस वीडीओ के लिए दोषी किसको मानें, क्या हिंसकों का समर्थन करने वालों और हिंसकों को संरक्षण देने वालों को जिंदा रहने का अधिकार भी है या नहीं? हम बात कर रहे है हमास और इस्राइल के बीच युद्ध और हिंसा आधारित वीडीओ का। गाजा पट्टी में खाना बांटने के आयोजन पर इस्राइली मिसाइलों ने हमला कर दिया और 36 लोगों को मौत का घाट उतार दिया, दो सौ से अधिक फिलिस्तीनियों को गंभीर रूप से लहूलुहान कर घायल कर दिया। गाजा पट्टी फिलिस्तीन का वह स्थान है जहां पर हमास का कब्जा है, हमास के समर्थकों की जगह है, हमास के लिए लडने वालों की जगह है, हमास ने यही पर इस्राइली बंधकोेें को बंधक बना कर रखे हुए हैं। फिर एक प्रश्न मानवता की कसौटी पर यह उठता है कि भूख से तडपते हुए लाखो लोगों की भूख कौन मिटायेगा, भूख से होने वाली मौतों को कौन रोकेगा, मुस्लिम यूनियनबाजी चलाने वाले मुस्लिम देश फिलिस्तीनियों के पुर्ननिर्माण मंें पैसे खर्च करने के लिए तैयार क्यों नहीं है? संयुक्त राष्ट्रसंघ का कहना है कि फिलिस्तीन को आर्थिक मदद नहीं मिली, इस्राइल के प्रहार और प्रतिहिंसा नहीं रोकी गयी तो फिर भूख से लाखों लोगों की मौत हो सकती है। लाखों लोग युद्ध के कारण बूरी स्थिति में फंसे हुए हैं, उनका जीवन संकट में हैं, वे इस्राइल की गोली से बच भी जायेंगे तो भी भूख से तड़प-तडप कर मरेंगे। उनके सामने भूख मिटाने के लिए न तो खाद्य सामग्री है और न ही दवाइयां। अंतर्राष्ट्रीय मदद के रास्ते बहुत ही सीमित हैं।

                  गाजा पट्टी लगभग कब्र बन चुकी है। गाजा पट्टी के 75 प्रतिशत भूभागो पर इस्राइल ने कब्जा कर रखा है। यहां पर इस्राइल की पूरी मनमर्जी चल रही है। उसकी मिसाइलें जब चाहती हैं तब हमला कर देती हैं, मिसाइल हमले आबादी वाले क्षेत्रों में ही क्यो होते हैं, सार्वजनिक जगहों पर क्यों होते हैं, स्कूलों-कालेजों पर क्यों होते हैं, अस्पतालों में क्यों होते हैं, सार्वजनिक वाहनों पर क्यों होते हैं? ऐसी जगहों पर मिसाइलें जब अराजक होंगी और मार करेंगी तो फिर नुकसान तो निर्दोष लोगों को ही होगा। निर्दोष लोगों ने ही अब तक अपनी जिंदगियां स्वाहा की है। आंकडे बताते हैं कि अब गाजा पट्टी में एक लाख लोगों की हत्याएं हुई हैं। इन एक लाख लोगों में मुश्किल से गिनती के कुछ लोग होंगे जिनका संबंध हमास और हिज्जबुल्लाह जैसे विभत्स आतंकी संगठनों से होंगे? फिर भी प्रतिहिंसा में निर्दोष जिंदगियां स्वाहा हो रही हैं। निदोष लोगों को मारे जाने की चिंता किसी को नहीं है। इस्राइल की इस कसौटी पर चिंता हो ही नही सकती है क्योंकि वह तो प्रतिहिंसा को ही अपना विजय मानता है और अपने अस्तित्व के लिए जरूरी मानता है, अचूक हथियार मानता है। हमास को भी चिंता नहीं है क्योंकि वह तो यही चाहता है, उसकी मंशा तो यही होती है कि इस्राइल जितना मुसलमानों का संहार करेगा, मुसलमानों को जितना प्रताडित करेगा उसका उतना ही समर्थन मुस्लिम वर्ग से आयेगा, हमास का हिंसक तत्व उतना ही मजबूत होगा।

                 सभी अमेरिका और यूरोप की ओर देख रहे हैं। अमेरिका और यूरोप से इस्राइल के प्रहार बचाने की उम्मीद कर रहे हैं। फिलिस्तीन में इस्राइल के खिलाफ अमेरिका और यूरोप से ही उम्मीद होती है। अमरिका और यूरोप के पैसे से फिलिस्तीन आबादी की रोजी रोटी चलती है और उनकी जिंदगियां गुलजार होती हैं। क्योंकि फिलिस्तीन वर्षो-वर्षो से हिंसा और प्रतिहिंसा की आग में धधक रही है। इस्लाम के स्थापना काल से ही वहां पर हिंसा और प्रतिहिंसा चल रही है। इस्लाम के आगमन के पहले वहां पर यहूदियों का राज था, यहूदियों का पूर्ण वर्चस्व था, थोडी बहुत आबादी ईसाइयों को थी। लेकिन मुस्लिम आबादी तो थी ही नहीं। फिर इस्लाम और यहूदियों के बीच कई लडाइयां हुई और यहूदियों का दमन हुआ, यहूदियों को हिंसा के बल पर दोयम नागरिक बनाया गया, फिलिस्तीन से पलायन करने के लिए विवश किया गया। जिस प्रकार से कश्मीर में हिन्दुओं को खदेडा गया, जिस प्रकार से कश्मीर को आतंकवाद और हिंसा के बल पर कब्जा कर इस्लाम की शक्ति बढायी गयी उसी प्रकार का खेल इस्लाम ने फिलिस्तीन में खेला था। दूसरे विश्व युद्ध के संकट के बाद यहूदियों ने अपनी माटी और अपना देश इस्राइल बनाया और अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए प्रतिहिंसा अपनायी।

                        फिलिस्तिनयों की जिंदगी की रक्षा करना, उनके लिए बाजार की व्यवस्था करना, उनके लिए रोजगार का सजृन करना, उनकी भूख को मिटाना आदि की जिम्मेदारी किसकी है? क्या यह सिर्फ अमेरिका और यूरोप की ही जिम्मेदारी है? क्या शेष दुनिया की कोई जिम्ेदारी नहीं है? खासकर मुस्लिम देशों की कोई जिम्मेंदारी नहीं है? दुनिया में 60 से अधिक मुस्लिम देश हैं। सउदी अरब, ईरान, मिश्र, कतर, तुर्की, अजरबैजान आदि दर्जनों मुस्लिम देश अमीर है और उनके पास पैसे भी बहुत ज्यादा है, ये अरबों-खरब डाॅलरों का निवेश यूरोप और अमेरिका में करते हैं? फिर ये फिलिस्तीन की मुस्लिम आबादी की भूख मिटाने के लिए सहायताएं देने में पीछे क्यों रहते हैं? फिलिस्तीन के पुर्नर्निमाण की बात आती है तो फिर ये मुस्लिम देश कभी भी आगे नहीं आते हैं, इनकी तिजारी खुलती नहीं है। ये सिर्फ अमेरिका और यूरोप को दोषी ठहराते हैं और अमेरिका व यूरोप से उम्मीद करते हैं कि ये फिलिस्तिनियों की भूख मिटायें और अपनी तिजोरी खोल कर रखें। दुनिया की कूटनीति में यह बात भी सामने आती है कि मुस्लिम देश ही हमास और हिज्जबुल्लाह को मदद देकर फिलिस्तीन समस्या को बकरार रखे हैं और हिंसक बना कर रखें हुए हैं। हमास का अपना कोई रोजगार नहीं है, अपना उसका कोई उद्योग धंधा नहीं है, उसकी अपनी कोई फैक्टरी नहीं है फिर उसके पास हथियार खरीदने के पैेसे कहा से आते हैं, आतंकी गतिविधियों को संचालित करने के लिए, हिंसक रखने के लिए पैसे कहां से आते हैं? ईरान तो हमास को हथियार देता है और इस्राइल के खिलाफ भडकाता भी है पर फिलिस्तीन की आबादी की भूख और विकास के लिए पैसे देने के लिए आगे भी नहीं आता है। 

                फिलिस्तीन आबादी की भलाई अब इसी में है कि हमास को रास्ते पर लाया जाना चाहिए और उसे युद्ध के भरोसे यहूदियों का सफाया करने के सपने देखने से रोका जाना चाहिए। अगर हमास के विभत्स हमले के समय मुस्लिम देशों ने हमास की आलोचना की होती तो फिर इस्राइल के आक्रोश और बदले की भावना की आंच कम की जा सकती थी, रोकी जा सकती थी। मुस्लिम देशों की बात छोड दीजिये पर इस्लाम के बुद्धिजीवियों ने भी हमास की आलोचना करने के लिए आगे नहीं आये थे। जबकि हमास का आतंकी हमला कितना विभत्स था, कितना रौंगटे खडा करने वाला था, कितना जहरीला था, यह सब कौन नहीं जानता है? अभी भी सैकडों बंधको को हमास अपने कब्जें में रखा है जिसे वह छोडने के लिए तैयार नहीं है। हमास बंधक छोडने के लिए तैयार होगा तभी दुनिया का जनमत इस्राइल की प्रतिहिंसा और प्रहार को रोकने के लिए दबाव बना सकता है। मुस्लिम देश और मुस्लिम बुद्धिजीवी बंधकों की रिहाई के लिए हमास तैयार नहीं कर सकेंगे तो फिर फिलिस्तीन की लाखों मुस्लिम आबादी भूख से मरने के लिए विवश होगी।


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