राष्ट्र-चिंतन
आईएसआई मनीगॉड है इनके लिए
भारतीय बुद्धीजीवियों की राष्ट्रद्रोही निष्ठा
विष्णुगुप्त
ग्रेट ब्रिटेन से जुड़ा एक अनोखा व प्ररेक घटना है। ब्रिटेन वासी एक सज्जन के यहां एक चोर घुस आया। चोर को पकड़ने के लिए उस सज्जन ने अनोखा रास्ता निकाला। उसने अपने देश के राष्टगान का टेप लगा दिया। राष्टगान की आवाज सुनकर चोर सम्मान में सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया फलस्वरूप वह पकड़ा गया पर उसने अपने देश के राष्टगान के प्रति प्ररेक सम्मान दर्शाया। जापानियों के संबंध में एक कहावत आम है कि जब वे अपनी धरती पर कदम रखते हैं तो वे सिर झुका कर अपनी धरती का सम्मान करते हैं। अमेरिका की मूल आबादी ‘रेड इंडियन‘ और कोलबंस की संस्कृति की आबादी कभी भी अपने देश के प्रति कोई भी उदासीनता या फिर असम्मान/ परसप्रंभुता को तुष्ट करने वाली नीति पसंद नहीं करती है। यह सही है कि मजहबी मानसिकता से ग्रसित होकर बाहर से आयी आबादी जरूर अमेरिकी राष्टवाद की प्रति अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष गतिविधियां चलाती हैं। ग्रेट ब्रिटन अपनी आबादी की इसी ग्रेट राष्टभक्ति के कारण दुनिया पर राज किया था और जापान द्वितीय विश्वयुद्ध में विध्वंस के बाद भी पुर्नर्निमाण से दुनिया की सर्वश्रेष्ठ आर्थिक शक्ति बना। दुनिया अमेरिका को अराजक या फिर आर्थिक लुटेरा कहता रहे पर आम अमेरिकियों को अपने देश की सामरिक शक्ति पर नाज है। उर्पयुक्त विषयक विमर्श पर जब हम अपने देश की आबादी को राष्ट भक्ति की कसौटी पर देखते है तो कहीं से भी प्ररेणादायी समर्पण का भाव वैसा नहीं है जैसा अमेरिका,ब्रिटेन और जापान के नागरिकों को अपने देश के प्रति राष्टभक्ति है। देश की आम नागरिकों पर नुक्ताचीनी नहीं करना ही बेहतर होगा पर खासकर बुद्धीजीवी संवर्ग नोट के चंद टुकड़ों के लिए परसंभुता के हित साधते हैं और देश के मान-सम्मान को परराष्टो को बेचते हैं ताकि उन्हें पेजथ्री टाइप की सुविधाएं चाहिए/विदेशी दौरे का आमंत्रण और सहायता चाहिए। इस निमित ये देश को बेचने से नहीं चुकते। नौकरााही/व्यापारी सवंर्ग पहले से ही पूरी तरह से राष्टभक्ति के मूल्यों पर पैसे/ पद को प्राथमिकता देते हैं और संरक्षण में नीतियां चलाते हैं। राजनीतिक संवर्ग भी इस कसौटी पर चाकचौबंद होने का दावा नहीं कर सकता है। अंग्रेजों की गोलियां खाकर चन्द्रोखर आजाद और फांसी पर चढ़कर सरदार भगत सिंह ने देश को आजाद कराया था। लेकिन आज की युवा पीढी और बुद्धीजीवियों का आजादी के इस सरोकार से निष्ठुर होना दुर्भाग्य ही माना जायेगा।
आईएसआई एजेंट गुलाम नवी फई की गिरफ्तारी से जिस तरह के राज खुले हैं उससे जयंचंदों की पूरी कहानी आम आबादी को न केवल ंिचंतित कर रही है बल्कि विचार का केन्द्रीत विषय यह हो गया है कि आखिर जयचंदों की राष्टविरोधी गतिविधियां किस प्रकार से नियंत्रित होगी और कब तक हमारे देश के तथाकथित बुद्धीजीवी और धर्मनिरपेक्ष संवर्ग नोट के चंद टूकडो के लिए आईएसआई और परसंप्रभुता के इशारों पर नाचती रहेगे? कब तक विदेशी पूंजी से देश में राष्टद्रोह जैसी प्रक्रिया चलाती रहेगी? आईएसआई एजेंड गुलाम नवी फई की गिरफ्तारी से यह राज जाहिर हुआ है कि वह भारत विरोधी जनमत बनाने के लिए अमेरिकी राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित कर रहा था।इतना ही नहीं बल्कि उसने भारतीय बुद्धीजीवियों और अन्य सवंर्ग के लोगों को पैसे की ताकत के बल पर प्रभावित कर छोडा था। गुलाम नवी फई के आमंत्रण पर अमेरिका का सैर करने वाले नामी-गिरामी हस्तियों में कुलदीप नैयर/दिलीप पडगावकर/वेद भसीन/हरजिंदर बावेजा /राजेंद्र सच्चर /गौतम नवलखा और अरूंधती राय जैसे पत्रकार और बुद्धीजीवी भी हैं। गुलाम नवी फई पर कश्मीर में पत्थरबाजों को आर्थिक सहायता देने के साथ ही साथ पत्थर बाजी की पूरी नीति बनाने और भारत को दुनिया भर में बदनाम करने का भी प्रमाणिक आरोप है। गुलाम नवी फई अमेरिका में कश्मीर के मुद्दे को हवा देने के लिए करोड़ों डालर कहां से लाकर खर्च कर रहा है और उसके पैसे से भारतीय बुद्धीजीवी किस प्रकार से देश का स्वाभिमान बेच रहे हैं? यह सबकी जानकारी भारतीय गुप्तचर एजेंसियों को कैसे नहीं होगी? आईएसआई और पाकिस्तान सरकार कश्मीर को हड़पने के लिए करोड़ो डालर हर साल खर्च करती है। सिर्फ फई ही नहीं बल्कि और कई संस्थाएं और शख्सियत हैं जो अमेरिका में बैठकर भारतीय बुद्धीजीवियों को खरीदते हैं।
फिर इन जयंचदों को नीति निर्धारण /जनमत निरीक्षण-परीक्षण जैसे महत्वपूर्ण दायित्वो को जिम्मेदारी कैसे दी गयी। खासकर दिलीप पडगावकर को कश्मीर समस्या के समाधान का मुख्य वार्ताकार क्यों बनाया गया। जिन लोगों की निष्ठा आईएसआई और परसंप्रभुताओं की पैरबीकार की होती है उन्हें देश के भाग्य विधाता बनाने की नीति क्यों होती है। यही कारण है कि हमारी संप्रभुता बार-बार अपमानित होती है/लहुलूहान होती है। फिर भी हमारे देश में राष्ट के प्रति जिम्मेदारी और वीरता का निर्णायक स्थितियां बनती नहीं है। कारण स्पष्ट है। जब भी आईएसआई या फिर चीन द्वारा खतरों की बात उठती है और निर्णायक नीतियां बनाने व कार्यान्वयन का समय आता है तब ऐसे ही बुद्धीजीवी किंतु-परंतु का सवाल उठाकर पानी डालने का काम करते हैं। कश्मीर में ऐसे जमात को आईएसआई और पाकिस्तान की कारस्तानियां नजर नहीं आती पर भारत को बदनाम करने का उन्हें कोई भी अवसर जाया करना स्वीकार नहीं है। गौतम नवलखा और अरूंधती राय कश्मीर को अलग करने की बात करते हैं और भारत को अपराधी के तौर पर खड़ा करने की स्वयं सेवी राजनीति चलाते हैं। क्या गौतम नवलखा और अरूधंती राय कश्मीर और पाकिस्तान जैसे मजहबी मानसिकता से ग्रसित व्यवस्था में रह सकते हैं? गौतम नवलखा और अरूंधती राय जैसों को भारत जैसी उदार व्यवस्था में ही पर संप्रभुता को साधने का खेल चल सकता है।
1971 में जब बांग्लादेश का निर्माण हुआ था और 90 हजार पाकिस्तानी सैनिक हमारे कब्जे में थे उसी समय कश्मीर समस्या का हल हो सकता था। कमसे कम हम अपनी सेना को मैदानी भागों तक ले जा सकते थे। पर वामपंथी बुद्धीजीवियों ने इंदिरा गांधी को गुमराह किया था और तर्क दिया गया था कि अब पाकिस्तान कभी भी भारत के खिलाफ सर नहीं उठा सकता है।चीन ने 1962 में हमला कर हमारी 90 मील भूमि कब्जाई और पांच हजार से अधिक सैनिकों को मौत का घाट उतार दिया। वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष बुद्धीजीव वर्ग आज भी चीन को हमलावर नहीं मानता है। हमारी कब्जाई 90 हजार मील भूमि में से चीन एक इंच भी भूमि छोड़ने के लिए तैयार नहीं है बल्कि अब वह अरूणाचल प्रदेश और सिक्किम को भी हड़पना चाहता है फिर भी बुद्धीजीवियों के एक बड़े संवर्ग द्वारा चीन से चमत्कृत है और चीन से स्वहितो की कीमत पर भी संबधों की पैरबी होती है। शरीयत आतंकवाद को जस्टीफाई ठहराने के लिए सरदार भगत सिंह को भी आंतकवादी कहा जाने लगा है। धर्मनिरपेक्ष बुद्धीजीवियों द्वारा तैयार किये गये स्कूली पाठ्यक्र्रमों में सरदार भगत सिंह को आतंकवादी करार दिया गया है।
देश के अंदर में विदेशी पूंजी से जनमत प्रभावित करने और राष्टवाद की जगह पर संप्रभुता का गुनागान करने की राजनीतिक-सामाजिक प्रक्रिया चलती है। स्वयं सेवी संस्थाओं के माध्यम से हमारी संप्रभुता की विरोधी शक्तियां अपना खेल खेलती रहती हैं और हमारी एकता-अखंडता को भी इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। आज देश में जितने भी बड़ी शख्सियत हैं उनका कोई न कोई पॉकेट स्वयं सेवी संस्था है जिनके माध्यम से उनका विदेशी भ्रमण और पेज थ्री सुविधाएं उठाते हैं। इस तरह के बुद्धीजीवियों को न तो कोई उद्योग धंधें होते है और न ही बड़ी नौकरियां होती है उनके पास। सिर्फ एनजीओ से उनका धंधा चलता रहता है और महीने में दस-बीस दिन विदेश में गुजारते हैं। एनजीओ को नियंत्रित किये बिना राष्टद्रोही अभिव्यक्ति को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। एनजीओ को मिलने वाले विदेशी धन पर चाकचौबंद निगरानी जरूरी क्यों नहीं है?
जयचंद की संस्कृति ने भारत को गुलाम बनाया था। जयंचदी संस्कृति के कारण ही आज भारत का स्वाभिमान कुचला जाता है। गुलाम नवी फई के इसारे पर नाचने वाले बुद्धीजीवी अब नायाब तर्क दे रहे हैं। इनका कहना यह है कि फई से संबंधित जानकारी उन्हें नहीं थी। फिर उनके पैसों पर अमेरिका गये क्यों? ऐसे जयंचदों पर जनता की धृणा और क्रोधता का डंडा चलना जरूरी है तभी इनके राष्टद्रोह जैसी प्रक्रिया बंद हो सकती है।
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एक लेख फई के ऊपर श्रीमान शेष नारायण जी ने भी लिखा था. वह हटा लिया बाद में. काश आप भी उसे पढ़ पाते..
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