Sunday, July 31, 2011

भारतीय बुद्धीजीवियों की राष्ट्रद्रोही निष्ठा


राष्ट्र-चिंतन

आईएसआई मनीगॉड है इनके लिए

भारतीय बुद्धीजीवियों की राष्ट्रद्रोही निष्ठा

विष्णुगुप्त



ग्रेट ब्रिटेन से जुड़ा एक अनोखा व प्ररेक घटना है। ब्रिटेन वासी एक सज्जन के यहां एक चोर घुस आया। चोर को पकड़ने के लिए उस सज्जन ने अनोखा रास्ता निकाला। उसने अपने देश के राष्टगान का टेप लगा दिया। राष्टगान की आवाज सुनकर चोर सम्मान में सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया फलस्वरूप वह पकड़ा गया पर उसने अपने देश के राष्टगान के प्रति प्ररेक सम्मान दर्शाया। जापानियों के संबंध में एक कहावत आम है कि जब वे अपनी धरती पर कदम रखते हैं तो वे सिर झुका कर अपनी धरती का सम्मान करते हैं। अमेरिका की मूल आबादी ‘रेड इंडियन‘ और कोलबंस की संस्कृति की आबादी कभी भी अपने देश के प्रति कोई भी उदासीनता या फिर असम्मान/ परसप्रंभुता को तुष्ट करने वाली नीति पसंद नहीं करती है। यह सही है कि मजहबी मानसिकता से ग्रसित होकर बाहर से आयी आबादी जरूर अमेरिकी राष्टवाद की प्रति अप्रत्यक्ष-प्रत्यक्ष गतिविधियां चलाती हैं। ग्रेट ब्रिटन अपनी आबादी की इसी ग्रेट राष्टभक्ति के कारण दुनिया पर राज किया था और जापान द्वितीय विश्वयुद्ध में विध्वंस के बाद भी पुर्नर्निमाण से दुनिया की सर्वश्रेष्ठ आर्थिक शक्ति बना। दुनिया अमेरिका को अराजक या फिर आर्थिक लुटेरा कहता रहे पर आम अमेरिकियों को अपने देश की सामरिक शक्ति पर नाज है। उर्पयुक्त विषयक विमर्श पर जब हम अपने देश की आबादी को राष्ट भक्ति की कसौटी पर देखते है तो कहीं से भी प्ररेणादायी समर्पण का भाव वैसा नहीं है जैसा अमेरिका,ब्रिटेन और जापान के नागरिकों को अपने देश के प्रति राष्टभक्ति है। देश की आम नागरिकों पर नुक्ताचीनी नहीं करना ही बेहतर होगा पर खासकर बुद्धीजीवी संवर्ग नोट के चंद टुकड़ों के लिए परसंभुता के हित साधते हैं और देश के मान-सम्मान को परराष्टो को बेचते हैं ताकि उन्हें पेजथ्री टाइप की सुविधाएं चाहिए/विदेशी दौरे का आमंत्रण और सहायता चाहिए। इस निमित ये देश को बेचने से नहीं चुकते। नौकरााही/व्यापारी सवंर्ग पहले से ही पूरी तरह से राष्टभक्ति के मूल्यों पर पैसे/ पद को प्राथमिकता देते हैं और संरक्षण में नीतियां चलाते हैं। राजनीतिक संवर्ग भी इस कसौटी पर चाकचौबंद होने का दावा नहीं कर सकता है। अंग्रेजों की गोलियां खाकर चन्द्रोखर आजाद और फांसी पर चढ़कर सरदार भगत सिंह ने देश को आजाद कराया था। लेकिन आज की युवा पीढी और बुद्धीजीवियों का आजादी के इस सरोकार से निष्ठुर होना दुर्भाग्य ही माना जायेगा।
                  आईएसआई एजेंट गुलाम नवी फई की गिरफ्तारी से जिस तरह के राज खुले हैं उससे जयंचंदों की पूरी कहानी आम आबादी को न केवल ंिचंतित कर रही है बल्कि विचार का केन्द्रीत विषय यह हो गया है कि आखिर जयचंदों की राष्टविरोधी गतिविधियां किस प्रकार से नियंत्रित होगी और कब तक हमारे देश के तथाकथित बुद्धीजीवी और धर्मनिरपेक्ष संवर्ग नोट के चंद टूकडो के लिए आईएसआई और परसंप्रभुता के इशारों पर नाचती रहेगे? कब तक विदेशी पूंजी से देश में राष्टद्रोह जैसी प्रक्रिया चलाती रहेगी? आईएसआई एजेंड गुलाम नवी फई की गिरफ्तारी से यह राज जाहिर हुआ है कि वह भारत विरोधी जनमत बनाने के लिए अमेरिकी राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित कर रहा था।इतना ही नहीं बल्कि उसने भारतीय बुद्धीजीवियों और अन्य सवंर्ग के लोगों को पैसे की ताकत के बल पर प्रभावित कर छोडा था। गुलाम नवी फई के आमंत्रण पर अमेरिका का सैर करने वाले नामी-गिरामी हस्तियों में कुलदीप नैयर/दिलीप पडगावकर/वेद भसीन/हरजिंदर बावेजा /राजेंद्र सच्चर /गौतम नवलखा और अरूंधती राय जैसे पत्रकार और बुद्धीजीवी भी हैं। गुलाम नवी फई पर कश्मीर में पत्थरबाजों को आर्थिक सहायता देने के साथ ही साथ पत्थर बाजी की पूरी नीति बनाने और भारत को दुनिया भर में बदनाम करने का भी प्रमाणिक आरोप है। गुलाम नवी फई अमेरिका में कश्मीर के मुद्दे को हवा देने के लिए करोड़ों डालर कहां से लाकर खर्च कर रहा है और उसके पैसे से भारतीय बुद्धीजीवी किस प्रकार से देश का स्वाभिमान बेच रहे हैं? यह सबकी जानकारी भारतीय गुप्तचर एजेंसियों को कैसे नहीं होगी? आईएसआई और पाकिस्तान सरकार कश्मीर को हड़पने के लिए करोड़ो डालर हर साल खर्च करती है। सिर्फ फई ही नहीं बल्कि और कई संस्थाएं और शख्सियत हैं जो अमेरिका में बैठकर भारतीय बुद्धीजीवियों को खरीदते हैं।
                    फिर इन जयंचदों को नीति निर्धारण /जनमत निरीक्षण-परीक्षण जैसे महत्वपूर्ण दायित्वो को जिम्मेदारी कैसे दी गयी। खासकर दिलीप पडगावकर को कश्मीर समस्या के समाधान का मुख्य वार्ताकार क्यों बनाया गया। जिन लोगों की निष्ठा आईएसआई और परसंप्रभुताओं की पैरबीकार की होती है उन्हें देश के भाग्य विधाता बनाने की नीति क्यों होती है। यही कारण है कि हमारी संप्रभुता बार-बार अपमानित होती है/लहुलूहान होती है। फिर भी हमारे देश में राष्ट के प्रति जिम्मेदारी और वीरता का निर्णायक स्थितियां बनती नहीं है। कारण स्पष्ट है। जब भी आईएसआई या फिर चीन द्वारा खतरों की बात उठती है और निर्णायक नीतियां बनाने व कार्यान्वयन का समय आता है तब ऐसे ही बुद्धीजीवी किंतु-परंतु का सवाल उठाकर पानी डालने का काम करते हैं। कश्मीर में ऐसे जमात को आईएसआई और पाकिस्तान की कारस्तानियां नजर नहीं आती पर भारत को बदनाम करने का उन्हें कोई भी अवसर जाया करना स्वीकार नहीं है। गौतम नवलखा और अरूंधती राय कश्मीर को अलग करने की बात करते हैं और भारत को अपराधी के तौर पर खड़ा करने की स्वयं सेवी राजनीति चलाते हैं। क्या गौतम नवलखा और अरूधंती राय कश्मीर और पाकिस्तान जैसे मजहबी मानसिकता से ग्रसित व्यवस्था में रह सकते हैं? गौतम नवलखा और अरूंधती राय जैसों को भारत जैसी उदार व्यवस्था में ही पर संप्रभुता को साधने का खेल चल सकता है।
                   1971 में जब बांग्लादेश का निर्माण हुआ था और 90 हजार पाकिस्तानी सैनिक हमारे कब्जे में थे उसी समय कश्मीर समस्या का हल हो सकता था। कमसे कम हम अपनी सेना को मैदानी भागों तक ले जा सकते थे। पर वामपंथी बुद्धीजीवियों ने इंदिरा गांधी को गुमराह किया था और तर्क दिया गया था कि अब पाकिस्तान कभी भी भारत के खिलाफ सर नहीं उठा सकता है।चीन ने 1962 में हमला कर हमारी 90 मील भूमि कब्जाई और पांच हजार से अधिक सैनिकों को मौत का घाट उतार दिया। वामपंथी और धर्मनिरपेक्ष बुद्धीजीव वर्ग आज भी चीन को हमलावर नहीं मानता है। हमारी कब्जाई 90 हजार मील भूमि में से चीन एक इंच भी भूमि छोड़ने के लिए तैयार नहीं है बल्कि अब वह अरूणाचल प्रदेश और सिक्किम को भी हड़पना चाहता है फिर भी बुद्धीजीवियों के एक बड़े संवर्ग द्वारा चीन से चमत्कृत है और चीन से स्वहितो की कीमत पर भी संबधों की पैरबी होती है। शरीयत आतंकवाद को जस्टीफाई ठहराने के लिए सरदार भगत सिंह को भी आंतकवादी कहा जाने लगा है। धर्मनिरपेक्ष बुद्धीजीवियों द्वारा तैयार किये गये स्कूली पाठ्यक्र्रमों में सरदार भगत सिंह को आतंकवादी करार दिया गया है।
                   देश के अंदर में विदेशी पूंजी से जनमत प्रभावित करने और राष्टवाद की जगह पर संप्रभुता का गुनागान करने की राजनीतिक-सामाजिक प्रक्रिया चलती है। स्वयं सेवी संस्थाओं के माध्यम से हमारी संप्रभुता की विरोधी शक्तियां अपना खेल खेलती रहती हैं और हमारी एकता-अखंडता को भी इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। आज देश में जितने भी बड़ी शख्सियत हैं उनका कोई न कोई पॉकेट स्वयं सेवी संस्था है जिनके माध्यम से उनका विदेशी भ्रमण और पेज थ्री सुविधाएं उठाते हैं। इस तरह के बुद्धीजीवियों को न तो कोई उद्योग धंधें होते है और न ही बड़ी नौकरियां होती है उनके पास। सिर्फ एनजीओ से उनका धंधा चलता रहता है और महीने में दस-बीस दिन विदेश में गुजारते हैं। एनजीओ को नियंत्रित किये बिना राष्टद्रोही अभिव्यक्ति को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। एनजीओ को मिलने वाले विदेशी धन पर चाकचौबंद निगरानी जरूरी क्यों नहीं है?
              जयचंद की संस्कृति ने भारत को गुलाम बनाया था। जयंचदी संस्कृति के कारण ही आज भारत का स्वाभिमान कुचला जाता है। गुलाम नवी फई के इसारे पर नाचने वाले बुद्धीजीवी अब नायाब तर्क दे रहे हैं। इनका कहना यह है कि फई से संबंधित जानकारी उन्हें नहीं थी। फिर उनके पैसों पर अमेरिका गये क्यों? ऐसे जयंचदों पर जनता की धृणा और क्रोधता का डंडा चलना जरूरी है तभी इनके राष्टद्रोह जैसी प्रक्रिया बंद हो सकती है।

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Saturday, July 16, 2011

माधुरी गुप्ता-निरूपमा राव जैसी कूटनीतिक -गुप्तचर व्यवस्था आईएसआई के हाथों खेलती है

राष्ट्र-चिंतन
मुबंई सीरियल बम विस्फोट
         

7/11,  26/11 के बाद अब 13/7 फिर..........  ?
 
माधुरी गुप्ता-निरूपमा राव जैसी कूटनीतिक -गुप्तचर व्यवस्था आईएसआई के हाथों खेलती है


 विष्णुगुप्त

निर्दोष जिंदगियां एक पर एक आतंकवादी राजनीति की रक्तरंजित शिकार होती हैं और नारा-उद्बोधन यह दिया जाता है कि आतंकवाद हमारे जज्बे को हरा नहीं सकता है। यह कथित जज्बा का नारा /उद्बोधन किसके पक्ष में दिया जाता है? क्या आतंकवादी राजनीति की रक्तंरंजित शिकार हुई निर्दोष जिंदगियां या उनके परिजनों के पक्ष में जज्बे की परिक्लना गढी जाती है। वास्तव में कथित जब्जे का नारा-उद्बोधन की बात करने वाले तथाकथित बुद्धीजीवी सत्ता संस्थान की विफलता को ढकने और आतंकवादियों के ही होसले बढ़ाते हैं। एक तो जनाक्रोश पर पानी डाला जाता है /दूसरे में पुलिस-सुरक्षा गुप्तचर एजेंसियों की नाकामी और आतंकवाद को दफन करने के रास्ते में सत्ता-कूटनीतिक विफलता को भी ढक दिया जाता है। 26/11 के आतंकवादी हमले में चूंकि सभ्रांत लोगों के साथ ही साथ विदेशी नागरिक भी मारे गये थे,इसलिए पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के खिलाफ दुनिया में थोड़ी उंची आवाज उठी थी। अब मुबंई में एक और सीरियल बम विस्फोट की वीभत्स घटना हो गयी है। इस सीरियल बम विस्फोट की वारदात को 13/7 के नाम से जाना जायेगा। 2006 में 7/11 में मुबंई के लोकल रेल गाड़ियों को आतंकवादियों ने निशाना बनाया था।दर्जनों निर्दोष जिंदगिया आतंकवाद की रक्तरंजित राजनीति की शिकार हुई है।
 सीरियल बम विस्फोट में पाक आतंकवादी संगठन लश्कर का हाथ हो या फिर इंडियन मुजाहिदीन सहित अन्य आतंकवादी संगठनों का, सभी का मास्टर मांइड आईएसआई है और नीति पूरी दुनिया में इस्लाम का शरीयत लागू करना है।जाहिरतौर पर ही नहीं बल्कि निर्णायक तौर  आईएसआई की भूमिका होगी। देश के अंदर जितने भी रक्तरंजित हिंसा में सक्रिय आतंकवादी संगठन है सभी के तार आईएसआई से जुड़े हुए है। काफी पहले से यह आशंका जतायी जा रही थी कि पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन भारत में खूनी आतंकवादी घटना को अंजाम देने की प्रक्रिया में है। फिर भी देश की गुप्तचर एजेंसिंया आंतकवादी घटना को रोकपाने में विफल हुई है। यह विचार किया जाना चाहिए कि जब हमारी सुरक्षा गुप्तचर एजेंसियां की विफलता पर कानून का सौंटा क्यों नहीं चले। उनकी जिम्मेदारी क्यों नहीं चाकचौबंद होनी चाहिए? आखिर मनमोहन सरकार की आतंकवादियों के सामने समर्पन की नीति की कीमत निर्दोष जिंदगियां कब तक चुकायेंगी?
गृहमंत्री पी चिदम्बरम का मतंव्य है कि पाकिस्तान-अफगानिस्तान आतंकवाद की नर्सरी है। गृहमंत्री का पाकिस्तान और अफगानिस्तान का नाम लेने का सीधा यर्थाथ इस सीरियल बम बलास्ट के सूत्र पाकिस्तान से जुड़ा होना है। अगर पाकिस्तान आतंकवादी की नर्सरी है तो फिर भारतीय कूटनीति संवर्ग पाकिस्तान पर नरम रूख क्यों अख्तियार करता है। पाकिस्तान को बच निकलने का अवसर क्यों दिया जाता है। अंतर्राष्टीय नियामकों में इस प्रश्न को क्यों नहीं ले जाया जाता है।
 विदेश सचिव निरूपमा राव का अब 13/7 पर कौन सा जवाब होगा/कौन सी नीति होगी? निरूपमा राव ने हाल ही मे कहा था कि पाकिस्तान बदल रहा है। पाकिस्तान बदल रहा की निरूपमा राव की थ्योरी क्या थी? निरूपमा राव की इस थ्योरी का यथार्थ था कि पाकिस्तान आतंकवादियों को संरक्षण देना बंद कर दिया है। अभी हाल ही में निरूपमा राव द्विपक्षीय वार्ता करने के लिए पाकिस्तान गयी थी। द्विपक्षीय वार्ता कर लौटने पर निरूपमा राव बहुत ही चमत्कृत थी और उन्हें वीरता का भान था कि पाकिस्तानी कूटनीतिक-प्रशासनिक तंत्र के विचारों को उन्होंने बदल कर रख दिया है। पाकिस्तान समर्थक बुद्धीजीवियों और लेखकों ने निरूपमा राव के पाकिस्तान दौरे का समा भी इस तरह बांधा था कि अब भारत में आतंकवादी घटनाएं घट ही नहीं सकती है और कश्मीर समस्या का समाधान भी तय जैसा है। अब मुबंई के 13/7 की सीरियल बम हमले को निरूपमा राव के गाल पर आतंकवादियों का तमाचा क्यों नहीं माना चाहिए। निरूपमा राव-माधुरी गुप्ता जैसी कूटनीतिक प्रक्रिया से कभी भी आतंकवाद जैसी वीभत्स राजनीति पर विजय प्राप्त नहीं किया जा सकता है। मनमोहन सरकार का कूटनीतिक संवर्ग की न तो कोई दिशा है और न ही उनके विचारों में कोई दृढंता है। कूटनीतिक संवर्ग में अगर दृढता होती तो पाकिस्तान लगातार आतंकवादियों का संरक्षण और सहयोग नहीं देता रहता। 26/11 के साजिशकर्ताओं के नाम उजागर होने के बाद भी पाकिस्तान ने कौन सी ईमानदारी दिखायी है? माफिया डॉन दाउद इब्राहिम को कौन सरंक्षण दे रहा है? क्या यह सब हमारी कूटनीतिक संवर्ग को नहीं मालूम है।
        दुर्भाग्य यह है कि सुरक्षा गुप्तचर एजेंसियों की विफलता पर पर्दा डालने खेल शुरू हो गया है। पी चिदम्बरम ने सुरक्षा गुप्तचर एजेंसियों की विफलता मानने से इनकार कर दिया है।फिर विफलता किसकी है? इस लीपापोती के लिए गृहमंत्री पी चिदम्बरम को क्यों नहीं कठघरे में खड़ा करना चाहिए? क्या मुबंई सीरियल बम विस्फोट पी चिदम्बरम की विफलता नहीं है। दिल्ली की रामलीला मैदान पर निर्दोष लोगो पर लाठियां चलवाने की वीरता दिखाने वाले पी चिदम्बरम की सुरक्षा गुप्तचर एजेंसियां आखिर क्या कर रही थी। सुरक्षा गुप्तचर एजेंसियों को आतंकवादियों की इस वीभत्स राजनीति की भनक आखिर लगी क्यों नहीं? सीरियल बम विस्फोट की वारदात के पहले ही आतंकवादियों को क्यों नहीं पकड़ा गया? पी चिदम्बरम और गुप्तचर एजेंसियां फिर झूठ पर झूठ का सहारा लेंगी। वैसी स्थिति में भी जब आशंका जाहिर किया जा रहा था कि आतंकवादी संगठनों के दहश्तगर्द हिंसा फैलाने की साजिश रच रहे हैं। इस तरह की खबरें मीडिया में बार-बार आ रही थी। क्या हमारी गुप्तचर एजेसियो में माधुरी गुप्ता जैसी आईएसआई की घुसपैठ है। माधुरी गुप्ता कैसे आईएसआई के हाथों में खेल रही थी, यह भी जगजाहिर है।
सही तो यह है कि हमारी गुप्तचर एजेंसियां अराजक और अनियंत्रित  हैं। गैर जिम्मेदार भी है। पाकिस्तान को डोजियर देने के प्रसंग को ही ले लीजिये। किस तरह देश की जगहसाई करायी थी हमारी गुप्तचर एजेंसियों ने। देश के जेलों में बंद आतंकवादियों को पाकिस्तान में होने की सूची थमाई गयी। पाकिस्तान ने उस डोजियर को खारजि ही नहीं किया बल्कि उपहास भी उड़ाया था। डोजियर प्रसंग में बड़े और निर्णायक जिम्मेदारी निभाने वाले अधिकारी की गर्दन नपनी चाहिए थी पर एक छोटे से सब इसंपेक्टर को निलंबित कर प्रसंग को लीपापोती का शिकार बना दिया गया। ऐसे में निर्णायक पदों पर बैठे अधिकारियों में जिम्मेदारी का अहसार होगा तो कैसे? 26/11 कांड में महाराष्ट के तत्कालीन मुख्यमंत्री और गृहमंत्री की कुर्सी गयी थी पर किसी सुरक्षा अधिकारी की गर्दन नपी थी क्या? बिना लड़े मारे गये महाराष्ट के एसटीएस के अधिकारियों को अशोक चक्र जैसा सम्मान मिला क्यों?
 आतंकवाद पर ब्रिटेन सहित पूरे यूरोप के निष्कर्ष पर हमें गौर करने की जरूरत है। खासकर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कैमरन की थ्योरी। कामरान कई अंतर्राष्टीय मंचों पर विचार रख चुके हैं कि इस्लाम की दकियानुसी और रक्तरंजित विचार के कारण बहुलतावाद और उदारतावाद का प्रयोग विफल साबित हो गया है।ब्रिटेन के प्रधानमंत्री का यह निष्कर्ष काफी ठोस है। इसलिए कि अपनी उदारता-बहुलतावाद की सोच के कारण ब्रिटेन ने पूरी दुनिया के इस्लामिक धर्मावलम्यिों को अपने यहां शरण दी। अब इस्लामिक आबादी ब्रिटेन और यूरोप में अपने लिए रक्तरंजित शरीयत मांगती है। लोकतांत्रिक पद्धति के कारण इस्लामिक आबादी सत्ता-राजनीति को भी नियंत्रित करने लगी है। पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन जब अमेरिका ने मार गिराया था तब पाकिस्तान की इस्लामिक आबादी ने कैसी विरोध की प्रक्रिया चलायी थी और ओसामा बिन लादेन को कैसे इस्लाम के लिए लड़ने वाला लड़ाकू कहा गया था? ब्रिटेन में भी ओसामा बिन लादेन के पक्ष में प्रदर्शन हुए। भारत में कयमीर/हैदराबाद/कोलकाता जैसे शहरों में ओसामा बिन लादेन के मारे जाने पर न केवल शोक मनाया गया था बल्कि शहीद भी बताया गया था। वोट की राजनीति और सत्ता के स्थायीकरण के लिए रक्तरंजित शरीयत समर्थक संवर्ग की मानसिकता का संरक्षण होता है और सवर्द्धन भी। जर्मन बेकरी कांड में पकड़े गये आतंकवादियों और देश के अंदर में हुए अन्य आतंकवादी घटनाओं में शामिल आबादी पर उदासीनता की रणनीति चलती है। बाटला हाउस कांड पर किस प्रकार संरक्षण की राजनीति खेल हुआ था यह भी जगजाहिर ही है।दिग्विजय ंिसंह ने किस प्रकार से आतंकवादियों को संरक्षण देने और पुलिस सवंर्ग के हौसले पस्त करने की राजनीति चली थी यह भी मालूम होनी चाहिए।
 पाकिस्तान/आतंकवाद की राजनीति के खिलाफ उदारनीति ही वह कारण है जिसमें हम आतंकवाद के आसान शिकार है। अमेरिका में वर्ल्ड टरेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमले के बाद और कोई हमला नहीं हुआ? इसलिए कि अमेरिका ने अपनी गुप्तचर एजेंसियों का चाकबौबंद बनाया। आतंकवादियों के मांदों में जाकर कार्रवाई की। ब्रिटेन ने भी अमेरिका की रणनीत अपनाकर अपनी सुरक्षा चाकचौबंद बनायी। लेकिन हम एक भी कड़ा कानून तक नहीं बना सके। जब हम आतंकवाद-पाकिस्तान के खिलाफ बोलते थे तब पूरी दुनिया हंसती थी और भारत की खिल्ली उड़ाती थी। ओसामा बिन लादेन के पाकिस्तान में मारे जाने के बाद पाकिस्तान के खिलाफ पूरी दुनिया बोल रही है और हमारी कूटनीति की थ्योरी है कि पाकिस्तान बदल रहा है। यह समय पाकिस्तान और आतंकवाद की गर्दन मरोड़ने का है। लचर कूटनीति और मनमोहन सत्ता की कमजोर दृष्टि से मुबंई की 13/7 की आतंकवादी घटना जैसी देश में आगे भी आतंकवादी घटना घटेगी और इसी प्रकार हमारी आबादी-निर्दोष जिंदगिया आतंकवाद की खूनी राजनीति का शिकार होगी।

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