Thursday, November 18, 2010

इस्लामिक मीडिया की करतूत

राष्ट्र-चिंतन

औरतों के प्रति असहिष्णुता क्यों?


इस्लामिक मीडिया की करतूत



विष्णुगुप्त

ब्रिटेन की इस्लामिक मीडिया की करतूत से यूरोप में औरतों की आजादी पर गंभीर प्रश्न खड़ा हो गया है। चर्चा /चिंता की बातें यह हो रही है कि कहीं इस्लाम की कट्टरतावादी मूल्यों/संहिताओं की पैठ से यूरोप की धार्मिक /महिला की आजादी भी प्रभावित न हो जाये और खूली सामाजिक व्यवस्था पर मजहबी संहिताएं न खड़ी हो जायें? हाल के वर्षो में इस्लाम की कट्टरता यूरोप में एक बड़ा राजनीतिक/सामाजिक/ धार्मिक प्रश्न बन गया है। कई यूरोपीय देश में इस्लाम के अनुदार संस्कृति के प्रचार-प्रसार को रोकने के लिए संवैधानिक संहिताएं भी बनायी हैं और संवैधानिक संहिताओं के उल्लंधन पर दंड के प्रावधान भी किये हैं। ऐसा इसलिए हुआ कि यूरोप में मजहबी संस्कृति के नाम पर कानून-संविधान का खुल्ला-खुल्लम उंलघन कर राजनीतिक ताकत बनाने का खेल-खेला जा रहा है। इस तरह के खेल से यूरोप को उदार समाज तब-तक उदासीन था और बर्दाशत कर रहा था जब तक मजहबी संस्कृतियां खतरनाक रूप धारण कर राजनीति/सत्ता को न प्रभावित कर रही थीं। जैसे ही उदार समाज व्यवस्था पर इस्लाम ने अपनी मजहबी संस्कृतियां हावी की और अलग कानून/संविधान कोड की मांग शुरू की वैसे ही यूरोप का समाज व्यवस्था ने मजहबी संस्कृतियों के प्रचार-प्रसार के खिलाफ सक्रियता भी दिखानी शुरू की है। फ्रांस में बुर्का के खिलाफ संवैधानिक प्रतिबंध इसकी सबसे बड़ी कड़ी है। पहले मजहबी संस्कृतियां और खतरनाक संहिताएं इस्लाम से जुड़े संस्थाएं मजबूत कर रहीं थी और अब मीडिया भी इसमें शामिल हो गया। इस्लामिक मूल्यों और रूढ़ियों के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक मीडिया यूरोप में खड़े हैं जो इस्लाम और गैर इस्लामिक आबादी के बीच टकराहट/घृणा/का बाजार लगा रहे हैं। मीडिया के उपर मजहबी संहिताएं हावी होना न सिर्फ यूरोप में इस्लामिक कट्टरता को बढाने वाला और औरत की आजादी को प्रभावित करने जैसी चिंताएं होनी चाहिए बल्कि शेष दुनिया को भी इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
                                     ओसामा बिन लादेन की संस्कृति और अराजक खूनी शक्ति ने इस्लामिक मीडिया को और खूंखार बना दिया है। ‘अल जजीरा ‘ ने जैसी दुनिया भर मे सोहरत पायी और ओसामा बिन लादेन की संस्कृति/खूनी सोच को दुनिया भर में स्थापित करने / इस्लाम को संघर्ष के प्रतीक जैसी भ्रांतियां फैलाने में कामयाब हुई वैसे ही इस्लाम की कट्टरवादी संस्थाओं को मीडिया को मोहरा के रूप में एक नया और खूंखर हथियर मिल गया। यूरोप में आज कुकुरमुत्ते की तरह गली-गली में इस्लामिक मीडिया अपनी मजहबी कट्टरता के प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है। खासकर ब्रिटेन में इस्लामिक मीडिया अपनी दो प्रकार की समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। एक में इस्लाम की रूढ़ियों को बढ़ावा देने और आतंकवाद जैसी खूनी मजहबी प्रक्रिया बढाया जा रहा है तो दूसरे में राजनीति समीकरण को प्रभावित किया जा रहा है। राजनीतिक समीकरण के प्रभावित होने से इस्लाम की रूढ़ियां को अपना बाजार पसारने में सहुलियत होती हैं। ब्रिटेन मे 14 प्रतिशत की आबादी इस्लाम को मानने वाली हैं। यह इस्लामिक आबादी अरब देशो/पाकिस्तान और अफ्रीकी देशों से जाकर बसी हैं। अब यह इस्लामिक आबादी ब्रिटेन की उदार और समतामूलक संविधान में इस्लामिक हिस्सेदारी चाहती हैं। इतना ही नहीं बल्कि इस्लामिक संहिताओं को लागू करने की मांग भी खतरनाक ढंग से उठी है। राजनीतिक तौर पर ऐसी खतरनाक और मजहबी मांगों के प्रति कठोरता भी नहीं दिखायी जाती है। इसलिए कि 14 प्रतिशत वाली मुस्लिम आबादी सत्ता को उखाड़ फेंकने की राजनीतिक शक्ति रखती है। ब्रिटेन या अन्य यूरोपीय देशों की सत्ता भारत की सत्ता जैसा ही मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति पर चलती है और सत्ता संस्थान के स्थायीकरण के लिए मुस्लिम आबादी के जायज/नाजायज मांगों के प्रति धुटने टेकती रहती है।
                          ब्रिटेन की एक इस्लामिक मीडिया संस्थान ने अपने खबरिया चैनल पर प्रसारित एक कार्यक्रम में न केवल घरेलू हिंसा का समर्थन किया बल्कि वैवाहिक महिलाओ के साथ बलात्कार जैसी प्रक्रियाओ को भी सही ठहराया गया। घरेलू हिंसा और बलात्कार का समर्थन कोई दर्शकों की राय नहीं थी। बल्कि खबरिया चैनल के एंकरों ने यह दर्शाया कि इस्लाम में औरतों को मारने-पिटने का अधिकार पुरूषों को है। वैवाहिक महिलाओं के साथ बलात्कार का भी अधिकार पुरूषों को है। खबरिया चैनल ने यह भी प्रचारित किया कि घरेलू हिंसा या फिर बलात्कार की शिकार महिलाएं कोर्ट नहीं जा सकती हैं और न पुरूषों को दंडित करा सकती हैं। ऐसा करने पर इस्लाम का तौहीन माना जायेगा और ऐसी महिलाओं के खिलाफ शरियत में दंड का प्रावधान है। दुनिया में कहीं भी रहने वाले मुस्लिम पुरूषों पर अपनी पत्नियों पर हिंसा की कार्रवाई पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है। महिलाएं श्रृंगार भी नहीं कर सकती हैं। इत्र लगाने वाली महिलाओं को वैश्या कहा गया। श्रृंगार करने वाली महिलाओं पर तलाक जैसी प्रक्रिया का बुलडोजर चलाने और ऐसी महिलाओं की जिंदगी नरक में तब्दील करने की भी अपील की गयी। खबरिया चैनल ने औरतों की आजादी को बंधक बनाने और औरतों को कबिलाई काल के बर्बर अत्याचार के मुंह में ढकेलने वाले कार्यक्रम का एक बार नहीं बल्कि बार-बार प्रसारित किया। चूंकि प्रसारण अरबी, उर्दू और अफ्रीकी भाषाओं में हो रहा था, इसलिए इस पर ब्रिटेन में ध्यान काफी बाद में गया। जैसे ही उक्त कार्यक्रम की जानकारी आम हुई वैसे ही ब्रिटेन के समाज और महिला संगठनों में आक्रोश उबल पड़ा। ऐसे कार्यक्रमों के औचित्य पर प्रश्न उठने के साथ ही साथ ऐसे मीडिया संस्थानों को प्रतिबंधित करने की मांग भी उठी। मीडिया पर निगरानी करने वाली संस्था ‘ऑफ्कॉम‘ ने सीधेतौर पर कहा कि ऐसा प्रसारण सीधेतौर पर प्रसारण नियमावली का उल्लंघन है और व्यक्ति की स्वततंत्रा का हनन करने वाला भी है। इस तरह के कार्यक्रम के प्रसारण से औरतो पर हिंसा बढंेगी और यूरोपीय समाज पर बर्बर जेहादी-मजहबी संस्कृतियां हावी हो जायेंगी।
                             औरतों की आजादी को मजहबी कट्टरता से बचाना आज भी एक ज्वलंत सवाल है। अन्य धार्मिक समूहों में औरतों पर उत्पीड़न वाली सामाजिक श्रृंखलाएं दम तोड़ चुकी हैं। महिलाओं ने भी अपनी आजादी को धार्मिक बंधन से मुक्त करने में संघर्षकारी भूमिका निभायी है। पर जब इस्लाम की बात आती है तब महिलाएं आज भी अपनी आजादी के प्रति प्ररेक श्रृंखलाएं से अपने आप को जोड़ने से कतराती है। ऐसा क्यों? इसलिए कि मजहबी समाज में अपनी आजादी की बात करने की कीमत महिलाओं को जान देकर चुकानी पड़ती है। अफगानिस्तान /पाकिस्तान में तालिबान ने महिलाओं के खिलाफ कैसी कार्रवाई जारी रखी हैं, इससे भी दुनिया भलिभांति से परिचित है। अरब देशों में महिलाओं पर इस्लामिक सत्ता का उत्पीड़न भी जगजाहिर है। यूरोप में जो इस्लामिक मीडिया का जाल है वह न केवल इस्लाम की रूढ़ियों का प्रचार-प्रसार में लगा हुआ है बल्कि भारत/इजरायल/ फिलिपींस जैसे देशों में इस्लामिक आतंकवाद को भी खाद-पानी दे रहा है। भारत/इजरायल/फिलिपींस आदि देशों के बारे अतिरंजित खबरे प्रसारित होती हैं। खबरों में यह दिखाया जाता है कि मुस्लिम आबादी पर अत्याचार के साथ ही साथ इस्लाम का तिरस्कार किया जा रहा है। ऐसे कार्यक्रमों से इस्लाम की रूढ़ियों का ग्राफ बढ़ता ही है और जेहादी मानसिकता भी फलता-फुलता है।
                               ब्रिटेन ही नहीं बल्कि पूरे यूरोपीय समाज को आत्ममंथन करना चाहिए और भविष्य में इस्लाम के और खतरनाक मानसिकताओं के प्रचार-प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए तत्पर होना होगा। यूरोप ने उदारवाद और मजहबी आजादी के नाम पर इस्लाम के अनुदारवाद और खूनी मानसिकता का समर्थन कर खुद ही आग को हवा दी है। इस आग में आज खुद यूरोप झुलस रहा है। यूरोपीय देशों की सत्ता को मुस्लिम महिलाओं की आजादी के संरक्षण के प्रति सचेत रहना चाहिए। औरतों की आजादी के खिलाफ बर्बर कार्यक्रम प्रसारित करने वाले इस्लामिक मीडिया पर ताल्ला क्यों नहीं लगना चाहिए?

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